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[ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र व्यक्त करना वचन कहलाता है।
शेष दण्डकों में कांक्षामोहनीय कर्मवेदन-पृथ्वीकाय की तरह अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय तक ऐसा ही वर्णन जानना चाहिए। तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय से वैमानिक तक समुच्चयजीव के वर्णन की तरह समझना चाहिए।
श्रमण-निर्ग्रन्थ को भी कांक्षामोहनीयकर्म-वेदन-श्रमण निर्ग्रन्थों की बुद्धि आगमों के परिशीलन से शुद्ध हो जाती है, फिर उन्हें कांक्षामोहनीय कर्म का वेदन कैसे हो सकता है? इस आशय से गौतम स्वामी का प्रश्न है।
ज्ञानान्तर–एक ज्ञान से दूसरा ज्ञान । यथा पांच ज्ञान क्यों कहे गये? अवधि और मनः पर्याय ये दो ज्ञान पृथक् क्यों? दोनों रूपी पदार्थों को जानते हैं, दोनों विकल एवं अतीन्द्रिय हैं, क्षयोपशमिक हैं। फिर भेद का क्या कारण है? इस प्रकार का सन्देह होना। यद्यपि विषय, क्षेत्र, स्वामी आदि अनेक अपेक्षाओं से दोनों ज्ञानों में अन्तर है, उसे न समझ कर शंका करने से और शंकानिवारण न होने से कांक्षा, विचिकित्सा और कलुषता आदि आती है।
दर्शनान्तर–सामान्य बोध, दर्शन है। यह इन्द्रिय और मन से होता है। फिर चक्षुदर्शन और अचक्षुदर्शन, इस प्रकार से दो भेद न करके या तो इन्द्रियदर्शन और मनोदर्शन, यों दो भेद करने थे, या इन्द्रियजन्य और अनिन्द्रियजन्य, यों दो भेद करने थे, अथवा श्रोत्रदर्शन, रसनादर्शन, मनोदर्शन आदि६ भेद करने चाहिए थे। किन्तु चक्षुदर्शन और अचक्षुदर्शन, ये दो भेद करने के दो मुख्य कारण हैं - (१) चक्षुदर्शन विशेष रूप से कथन करने के लिए और अचक्षुदर्शन सामान्य रूप से कथन के लिए हैं। (२) चक्षुरिन्द्रिय अप्राप्यकारी है, शेष चार इन्द्रियां प्राप्यकारी हैं। मन अप्राप्यकारी होते हुए भी सभी इन्द्रियों के साथ रहता है। इस प्रकार का समाधान न होने से शंकादि दोषों से ग्रस्त हो जाता है।
अथवा 'दर्शन' का अर्थ सम्यक्त्व है। उसके विषय में शंका पैदा होना। जैसे-औपशमिक और क्षायोपशमिक दोनों सम्यक्त्वों का लक्षण लगभग एक-सा है, फिर दोनों को पृथक्-पृथक् बताने का क्या कारण है? ऐसी शंका का समाधान न होने पर कांक्षामोहनीयकर्म का वेदन करते हैं। इसका समाधान यह है कि क्षायोपशमिक सम्यक्त्व में प्रदेशानुभव की अपेक्षा उदय होता है, जबकि औपशमिक सम्यक्त्व में प्रदेशानुभव ही नहीं होता। इस कारण दोनों को पृथक्-पृथक् कहा गया है।
___ चारित्रान्तर-चारित्र विषयक शंका होना। जैसे–सामायिक चारित्र सर्वसावधविरति रूप है और महाव्रतरूप होने से छेदोपस्थापनिक चारित्र भी अवद्यविरति रूप है, फिर दोनों पृथक्-पृथक् क्यों कहे गए हैं? इस प्रकार की चारित्रविषयक शंका भी कांक्षामोहनीय कर्मवेदन का कारण बनती है। समाधान यह है कि चारित्र के ये दो प्रकार न किये जाएं तो केवल सामायिक चारित्र ग्रहण करने वाले साधु के मन में जरा-सी भूल करते ही ग्लानि पैदा होती है कि मैं चारित्रभ्रष्ट हो गया! क्योंकि उनकी दृष्टि से केवल सामायिक ही चारित्ररूप है। इसलिए प्रथम सामायिक चारित्र ग्रहण करने के बाद दूसरी बार महाव्रतारोपण रूप छेदोपस्थापनीय चारित्र ग्रहण करने पर सामायिक सम्बन्धी थोड़ी भूल हो जाए तो भी उसके महाव्रत खण्डित नहीं होते। इसीलिए दोनों चारित्रों के गर्दा करने का विधान प्रथम और अन्तिम