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This chapter describes the blissful experiences of virtuous beings who are constantly immersed in the uninterrupted stream of supreme happiness derived from the ripening of their karmas.
In this way, the Lord Jinendra Dev has described the various types of results (fruits) of both unwholesome and wholesome karmas in this Vipaka Sutra, to inspire the worldly beings. Similarly, many other types of meanings have been explained in detail in this Anga.
555- There are many recitations of the Vipaka Sutra, many Anuyoga doors, many understandings, many explanations, many verses, many applications, and many collections.
556- This Vipaka Sutra is the eleventh Anga. There are twenty studies, twenty purposes, twenty objectives, and countless words in terms of word count. There are countless letters, infinite paths, infinite synonyms, many recitations, infinite permanent things. In this, eternal, done, bound, and collected states are described, explained, illustrated, exemplified, and demonstrated. Through this Anga, the soul becomes the knower, the discerner. In this way, through the explanation of the steps and actions, the nature of things is described, explained, exemplified, and demonstrated. This is the introduction to the eleventh Vipaka Sutra Anga.
557- What is this Drishtivad Anga? What is described in it?
The Drishtivad Anga describes the nature of all things. It is said to be of five types in summary, namely: 1. Perikarma, 2. Sutra, 3. Purvagata, 4. Anuyoga, and 5. Chulicka.
558- What is Perikarma? Perikarma is said to be of seven types, namely: 1. Siddhasreniya Perikarma, 2. Manushyasreniya Perikarma, 3. Prushthasreniya Perikarma, 4. Avgahanasreniya Perikarma, 5. Upasampadya Perikarma,
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[समवायाङ्गसूत्र विपाक से प्राप्त उत्तम सुखों की अनुपरत (अविच्छिन्न) परम्परा से परिपूर्ण रहते हुए सुखों को भोगते हैं, ऐसे पुण्यशाली जीवों का इस सुखविपाक में वर्णन किया गया है।
__इस प्रकार अशुभ और शुभ कर्मों के बहुत प्रकार के विपाक-(फल) इस विपाकसूत्र में भगवान् जिनेन्द्र देव ने संसारी जनों को संवेग उत्पन्न करने के लिए कहे हैं। इसी प्रकार से अन्य भी बहुत प्रकार की अर्थ-प्ररूपणा विस्तार से इस अंग में की गई है।
५५५-विवागसुयस्सणं परित्ता वायणा,संखेजा अणुओगदारा,संखेज्जाओ पडिवत्तीओ, संखेन्जा वेढा, संखेज्जा सिलोगा, संखेन्जाओ निजुत्तीओ संखेन्जाओ संगहणीओ।
विपाकसूत्र की परीत वाचनाएं हैं, संख्यात अनुयोगद्वार हैं, संख्यात प्रतिपत्तियाँ हैं, संख्यात वेढ हैं, संख्यात श्लोक हैं। संख्यात नियुक्तियाँ हैं और संख्यात संग्रहणियाँ हैं।
५५६-से णं अंगट्ठयाए एक्कारसमे अंगे, वीसं अज्झयणा, वीसं उद्देसणकाला, वीसं समुद्देसणकाला, संखेज्जाइं पयसयसहस्साइं पयग्गेणं पण्णत्ताई।संखेन्जाणि, अक्खराणि, अणंता गमा, अणंता पन्जवा, परित्ता तसा,अणंता थावरा,सासया कडा णिबद्धा णिकाइया जिणपण्णत्ता भावा आघविजंति, पण्णविन्जंति परूविजंति निदंसिजंति उवदंसिज्जंति।से एवं आया, से एवं णाया, एवं विण्णाया, एवं चरण-करणपरूवणया आघविन्जंति.। से त्तं विवागसुए ११।
यह विपाक सूत्र अंगरूप से ग्यारहवाँ अंग है। बीस अध्ययन हैं, बीस उद्देशन-काल हैं, बीस समुद्देशन-काल हैं, पद-गणना की अपेक्षा संख्यात लाख पद हैं। संख्यात अक्षर हैं, अनन्त गम हैं, अनन्त पर्याय हैं परीत त्रस हैं, अनन्त स्थावर हैं। इसमें शाश्वत, कृत, निबद्ध, निकाचित भाव कहे जाते हैं, प्रज्ञापित किये जाते हैं, प्ररूपित किए जाते हैं, निदर्शित किये जाते हैं और उपदर्शित किये जाते हैं । इस अंग के द्वारा आत्मा ज्ञाता होता है, विज्ञाता होता है। इस प्रकार चरण और करण की प्ररूपणा के द्वारा वस्तुस्वरूप का कथन, प्रज्ञापन, निदर्शन और उपदर्शन किया जाता है। यह ग्यारहवें विपाकसूत्र अंग का परिचय है ११।
५५७-से किं तं दिट्ठिवाए? दिट्ठिवाए णं सव्वभावपरूवणया आघविज्जति।से समासओ पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा-परिकम्मं सुत्ताइं पुव्वगयं.अणुओगो चूलिया।
यह दृष्टिवाद अंग क्या है - इसमें क्या वर्णन है?
दृष्टिवाद अंग में सर्व भावों की प्ररूपणा की जाती है। वह संक्षेप से पाँच प्रकार का कहा गया है, जैसे-१. परिकर्म, २. सूत्र, ३. पूर्वगत, ४. अनुयोग और ५. चूलिका।
५५८-से किं तं परिकम्मे? परिकम्मे सत्तविहे पण्णत्ते, तं जहा-सिद्धसेणियापरिकम्मे मणुस्ससेणियापरिकम्मे पुट्ठसेणियापरिकम्मे ओगाहणसेणियापरिकम्मे उवसंपन्जसेणियापरिकम्मे विप्पजहसेणियापरिकम्मे चुआचुअसेणियापरिकम्मे।
परिकर्म क्या है? परिकर्म सात प्रकार का कहा गया है, जैसे-१. सिद्धश्रेणिका-परिकर्म, २. मनुष्यश्रेणिका परिकर्म, ३ पृष्ठश्रेणिका परिकर्म, ४ अवगाहनश्रेणिका परिकर्म,५ उपसंपद्यश्रेणिका परिकर्म,