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स्थानाङ्गसूत्रम्
अनाहारक, उच्छ्वासक-नोउच्छ्वासक, संज्ञी-असंज्ञी आदि दो-दो अवस्थाओं का वर्णन किया गया है।
तदनन्तर अधोलोक आदि तीनों लोकों के जानने के दो-दो स्थानों का, शब्दादि को ग्रहण करने के दो स्थानों का वर्णन कर प्रकाश, विक्रिया, परिवार, विषय-सेवन, भाषा, आहार, परिणमन, वेदन और निर्जरा करने के दो-दो स्थानों का वर्णन किया गया है। अन्त में मरुत आदि देवों के दो प्रकार के शरीरों का निरूपण किया गया है।
तृतीय उद्देश का सार दो प्रकार के शब्द और उनकी उत्पत्ति, पुद्गलों का सम्मिलन, भेदन, परिशाटन, पतन, विध्वंस, स्वयंकृत और परकृत कहकर पुद्गल के दो-दो प्रकार बताये गये हैं। ____ तत्पश्चात् आचार और उसके भेद-प्रभेद बारह प्रतिमाओं का दो-दो के रूप में निर्देश, सामायिक के प्रकार, जन्म-मरण के लिए विविध शब्दों का प्रयोग, मनुष्य और पंचेन्द्रिय तिर्यंचों के गर्भ-सम्बन्धी जानकारी, कायस्थिति
और भवस्थिति का वर्णन कर दो प्रकार की आयु, दो प्रकार के कर्म, निरुपक्रम और सोपक्रम आयु भोगने वाले जीवों का वर्णन किया गया है।
तदनन्तर क्षेत्रपद, पर्वतपद, गुहापद, कूटपद, महाद्रहपद, महानदीपद, प्रपातद्रहपद, कालचक्रपद, शलाकापुरुषवंशपद, शलाकापुरुषपद, चन्द्रसूरपद, नक्षत्रपद, नक्षत्रदेवपद, महाग्रहपद, और जम्बूद्वीप-वेदिकापद के द्वारा जम्बूद्वीपस्थ क्षेत्र-पर्वत आदि का तथा नक्षत्र आदि का दो-दो के रूप में विस्तत वर्णन किया गया है।
पुनः लवणसमुद्रपद के द्वारा उसके विष्कम्भ और वेदिका के प्रमाण को बताकर धातकीषण्डपद के द्वारा तद्-गत क्षेत्र, पर्वत, कूट, महाद्रह, महानदी, बत्तीस विजयक्षेत्र, बत्तीस नगरियाँ, दो मन्दर आदि का विस्तृत वर्णन, अन्त में धातकीषण्ड की वेदिका और कालोदसमुद्र की वेदिका का प्रमाण बताया गया है।
तत्पश्चात् पुष्करवरपद के द्वारा वहां के क्षेत्र, पर्वत, नदी, कूट, आदि धातकीषण्ड के समान दो-दो जानने की सूचना दी गई है। पुनः पुष्करवरद्वीप की वेदिका की ऊंचाई और सभी द्वीपों और समुद्रों की वेदिकाओं की ऊंचाई दो-दो कोश बतायी गयी है।
अन्त में इन्द्रपद के द्वारा भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिष्क और कल्पवासी देवों के दो-दो इन्द्रों का निरूपण कर विमानपद में विमानों के दो-दो वर्णों का वर्णन कर ग्रैवेयकवासी देवों के शरीर की ऊंचाई दो रनि प्रमाण कही गयी
है।
चतुर्थ उद्देश का सार इस उद्देश में जीवाजीवपद के द्वारा समय, आवलिका से लेकर उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी पर्यन्त काल के सभी भेदों को, तथा ग्राम, नगर से लेकर राजधानी तक के सभी जन-निवासों को, सभी प्रकार के उद्यान-वनादि को, सभी प्रकार के कूप-नदी आदि जलाशयों को, तोरण, वेदिका, नरक, नारकावास, विमान-विमानावास, कल्प, कल्पावास और छाया-आतप आदि सभी लोकस्थित पदार्थों को जीव और अजीव रूप बताया गया है।