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दशम स्थान
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९. संक्रामित-अनुयोग— विभक्ति और वचन के संक्रमण का विचार। जैसे— 'साहूणं वंदणेणं नासति
पावं असंकिया भावा' अर्थात् साधुओं को वन्दना करने से पाप नष्ट होता है और साधु के पास रहने से भाव अशंकित होते हैं। यहां वन्दना के प्रसंग में 'साहूणं' षष्ठी विभक्ति है। उसका भाव अशंकित होने के सम्बन्ध में पंचमी विभक्ति के रूप से संक्रमित किया गया। यह विभक्ति-संक्रमण है तथा 'अच्छंदा जे न भुजंति, न से चाइत्ति वुच्चई' यहां से चाई' यह बहुवचन के स्थान में एकवचन का संक्रामित
प्रयोग है। १०. भिन्न-अनुयोग— क्रमभेद और कालभेद आदि का विचार। जैसे—'तिविहं तिविहेणं' यह संग्रहवाक्य
है। इसमें १–मणेणं वायाए काएणं, २—न करेमि, न कारवेमि, करंतंपि न समणुजानामि इन दो खंडों का संग्रह किया गया है। द्वितीय खंड 'न करेमि' आदि तीन वाक्यों में 'तिविहेणं' का स्पष्टीकरण है और प्रथम खंड 'मणेणं' आदि तीन वाक्यांशों में 'तिविहेणं' का स्पष्टीकरण है। यहां न करेमि' आदि बाद में है और 'मणेणं' आदि पहले। यह क्रम-भेद है। काल-भेद-जैसे—सक्के देविंदे देवराया
वंदति नमंसति यहां अतीत के अर्थ में वर्तमान की क्रिया का प्रयोग है (९६)। दान-सूत्र
९७- दसविहे दाणे पण्णत्ते, तं जहासंग्रह-श्लोक
अणुकंपा संगहे चेव, भये कालुणिएति य । लज्जाए गारवेणं च, अहम्मे उण सत्तमे ॥
धम्मे य अट्ठमे वुत्ते, काहीति य कतंति य ॥१॥ दान दश प्रकार का कहा गया है, जैसे१. अनुकम्पा-दान- करुणाभाव से दान देना। २. संग्रह-दान- सहायता के लिए दान देना। ३. भय-दान- भय से दान देना। ४. कारुण्य-दान- मृत्त व्यक्ति के पीछे दान देना। ५. लज्जा-दा-लोक-लाज से दान देना। ६. गौरव-दान- यश के लिए या अपना बड़प्पन बताने के लिए दान देना। ७. अधर्म-दान- अधार्मिक व्यक्ति को दान देना या जिससे हिंसा आदि का पोषण हो। ८. धर्म-दान- धार्मिक व्यक्ति को दान देना। ९. कृतमिति-दान- कृतज्ञता-ज्ञापन के लिए दान देना।
१०. करिष्यति-दान- भविष्य में किसी का सहयोग प्राप्त करने की आशा से देना (९७)। गति-सूत्र
९८– दसविधा गती पण्णत्ता, तं जहा—णिरयगती, णिरयविग्गहगती, तिरियगती, तिरिय