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________________ अष्टम स्थान ६१५ की अग्नि, मुण्डिका का चूल्हा, भण्डिका का चूल्हा, गोलिका का चूल्हा', घड़ों का पंजावा, खप्परों का पंजावा, ईंटों का पंजावा, गुड़ बनाने की भट्टी, लोहकार की भट्टी तपती हुई, अग्निमय होती हुई, किंशुक फूल के समान लाल होती हुई, सहस्रों उल्काओं और सहस्रों ज्वालाओं को छोड़ती हुई, सहस्रों अग्निकणों को फेंकती हुई, भीतर ही भीतर जलती है, उसी प्रकार मायावी माया करके भीतर ही भीतर जलता है। यदि कोई अन्य पुरुष आपस में बात करते हैं तो मायावी समझता है कि ये मेरे विषय में ही शंका कर रहे कोई मायावी माया करके उसकी आलोचना या प्रतिक्रमण किये बिना ही काल-मास में काल करके किसी देवलोक में देवरूप में उत्पन्न होता है, किन्तु वह महाऋद्धि वाले, महाद्युति वाले, विक्रियादि शक्ति से युक्त, महायशस्वी, महाबलशाली, महान् सौख्य वाले, ऊंची गति वाले और दीर्घस्थिति वाले देवों में उत्पन्न नहीं होता। वह देव होता है, किन्तु महाऋद्धि वाला, महाद्युति वाला, विक्रिया आदि शक्ति से युक्त, महायशस्वी, महाबलशाली, महान् सौख्यवाला, ऊंची गतिवाला और दीर्घ स्थितिवाला देव नहीं होता। वहां देवलोक में उसकी जो बाह्य और आभ्यन्तर परिषद् होती है, वह भी न उसको आदर देती है, न उसे स्वामी के रूप में मानती है और न महान् व्यक्ति के योग्य आसन पर बैठने के लिए निमंत्रित करती है। जब वह भाषण देना प्रारम्भ करता है, तब चार-पांच देव बिना कहे ही खड़े हो जाते हैं और कहते हैं 'देव! बहुत मत बोलो, बहुत मतं बोलो।' पुनः वह देव आयुक्षय, भवक्षय और स्थितिक्षय के अनन्तर देवलोक से च्युत होकर यहाँ मनुष्यलोक में मनुष्य भव में जो ये अन्तकुल हैं, या प्रान्तकुल हैं, या तुच्छकुल हैं, या दरिद्रकुल हैं, या भिक्षुककुल हैं, या कृपणकुल हैं या इसी प्रकार के अन्य हीन कुल हैं, उनमें मनुष्य के रूप में उत्पन्न होता है। वहां वह कुरूप, कुवर्ण, दुर्गन्ध, अनिष्ट रस और कठोर स्पर्शवाला पुरुष होता है। वह अनिष्ट, अकान्त, अप्रिय, अमनोज्ञ और मन को न गमने योग्य होता है। वह हीनस्वर, दीनस्वर, अनिष्टस्वर, अकान्तस्वर, अप्रियस्वर, अमनोज्ञस्वर, अरुचिकरस्वर और अनादेय वचनवाला होता है। वहाँ उसकी जो बाह्य और आभ्यन्तर परिषद् होती है, वह भी उसका न आदर करती है, न उसे स्वामी के रूप में समझती है, न महान् व्यक्ति के योग्य आसन पर बैठने के लिए निमंत्रित करती है। जब वह बोलने के लिए खड़ा होता है, तब चार-पांच मनुष्य बिना कहे ही खड़े हो जाते हैं और कहते हैं—'आर्यपुत्र! बहुत मत बोलो, बहुत मत बोलो।' मायावी माया करके उसकी आलोचना कर, प्रतिक्रमण कर, कालमास में काल कर किसी एक देवलोक में देवरूप से उत्पन्न होता है। वह महाऋद्धि वाले, महाद्युति वाले, विक्रिया आदि शक्ति से युक्त, महायशस्वी, महाबलशाली, महान् सौख्यवाले, ऊंची गतिवाले और दीर्घ स्थितिवाले देवों में उत्पन्न होता है। वह महाऋद्धिवाला, महाद्युतिवाला, विक्रिया आदि शक्ति से युक्त, महायशस्वी, महाबलशाली, महान् सौख्यवाला, ऊंची गतिवाला और दीर्घ स्थितिवाला देव होता है। उसका वक्षःस्थल हार से शोभित होता है, वह भुजाओं में कड़े, १. ये विभिन्न देशों में विभिन्न वस्तुओं को पकाने, राँधने आदि कार्य के लिए काम में आने वाले छोटे-बड़े चूल्हों के नाम हैं।
SR No.003440
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthananga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Dictionary, & agam_sthanang
File Size16 MB
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