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________________ सप्तम स्थान ५७५ ३. प्रतिमास्थायी — भिक्षुप्रतिमा की विभिन्न मुद्राओं में स्थित रहना । ४. वीरासनिक — सिंहासन पर बैठने के समान दोनों घुटनों पर हाथ रखकर अवस्थित होना अथवा सिंहासन पर बैठकर उसे हटा देने पर जो आसन रहता है वह वीरासन है। इस आसन वाला वीरासनिक है। ५. नैषधिक— पालथी मारकर स्थिर हो स्वाध्याय करने की मुद्रा में बैठना । ६. दण्डायतिक— डण्डे के समान सीधे चित्त लेटकर दोनों हाथों और पैरों को सटाकर अवस्थित रहना । ७. लगंडशायी — भूमि पर सीधे लेटकर लकुट के समान एड़ियों और शिर को भूमि से लगा कर पीठ आदि मध्यवर्ती भाग को ऊपर उठाये रखना (४९) । विवेचन — परीषह और उपसर्गादि को सहने की सामर्थ्य - वृद्धि के लिए जो शारीरिक कष्ट सहन किये जाते हैं, वे सब कायक्लेशतप के अन्तर्गत हैं। ग्रीष्म में सूर्य- आतापना लेना, शीतकाल में वस्त्रविहीन रहना और डाँसमच्छरों के काटने पर भी शरीर को न खुजाना आदि भी इसी तप के अन्तर्गत जानना चाहिए । क्षेत्र - पर्वत - नदी - सूत्र ५० - जंबुद्दीवे दीवे सत्त वासा पण्णत्ता, तं जहा—भरहे, एरवते, हेमवते, हेरण्णवते, हरिवासे, रम्मगवासे, महाविदेहे । जम्बूद्वीप नामक द्वीप में सात वर्ष (क्षेत्र) कहे गये हैं, जैसे १. भरत २. ऐरवत, ३. हैमवत, ४. हैरण्यवत, ५. हरिवर्ष, ६. रम्यकवर्ष, ७. महाविदेह ( ५० ) । ५१जंबूद्दीवे दीवे सत्त वासहरपव्वया पण्णत्ता, तं जहा— चुल्लहिमवंते, महाहिमवंते, सिढे, णीलवंते, रुप्पी, सिहरी, मंदरे । जम्बूद्वीप नामक द्वीप में सात वर्षधर पर्वत कहे गये हैं, जैसे १. क्षुद्रहिमवान्, २. महाहिमवान्, ३. निषध, ४. नीलवान्, ५. रुक्मी, ६ . शिखरी, ७. मन्दर (सुमेरु पर्वत) (५१) । ५२– - जंबूद्दीवे दीवे सत्त महाणदीओ पुरत्थाभिमुहीओ लवणसमुहं समप्पेंसि, तं जहा गंगा, रोहिता, हरी, सीता, णरकंता, सुवण्णकूला, रत्ता। बूद्वीप नामक द्वीप में सात महानदियाँ पूर्वाभिमुख होती हुई लवणसमुद्र में मिलती हैं, जैसे१. गंगा, २ . रोहिता, ३. हरित, ४. सीता, ५. नरकान्ता, ६. सुवर्णकूला, ७. रक्ता (५२) । ५३ - जंबूद्दीवे दीवे सत्त महाणदीओ पच्चत्थाभिमुहीओ लवणसमुहं समप्पेंति, तं जहा— सिंधू, रोहितंसा, हरिकंता, सीतोदा, णारिकंता, रूप्पकूला, रत्तावती । जम्बूद्वीप नामक द्वीप में सात महानदियाँ पश्चिमाभिमुख होती हुई लवणसमुद्र में मिलती है, जैसे-१. सिन्धु, २. रोहितांशा, ३. हरिकान्ता, ४. सीतोदा, ५. नारीकान्ता, ६. रूप्यकूला, ७. रक्तवती (५३) । ५४—– धायइसंडदीवपुरत्थिमद्धे णं सत्त वासा पण्णत्ता, तं जहा—भरहे, (एरवते, हेमवते,
SR No.003440
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthananga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Dictionary, & agam_sthanang
File Size16 MB
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