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स्थानाङ्गसूत्रम्
४. स्वयं के डूब जाने से आत्म-विराधना की भी संभावना रहती है।
गंगादि पांच ही महानदियों के उल्लेख से ऐसा प्रतीत होता है कि भगवान् महावीर के समय में निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थियों का विहार उत्तर भारत में ही हो रहा था, क्योंकि दक्षिण भारत में बहने वाली नर्मदा, गोदावरी, ताप्ती आदि किसी भी महानदी का उल्लेख प्रस्तुत सूत्र में नहीं है। हां, महानदी और महार्णव पद को उपलक्षण मानकर अन्य महानदियों का ग्रहण करना चाहिए। प्रथम प्रावृष्-सूत्र
९९ -- णो कप्पइ णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण व पढमपाउसंसि गामाणुगामं दूइजित्तए।
पंचहिं ठाणेहिं कप्पइ, तं जहा—१. भयंसि वा, २. दुब्भिक्खंसि वा, ३. (पव्वहेज वा णं कोई, ४. दओघंसि वा एजमाणंसि), महता वा, अणारिएहिं।
निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थियों को प्रथम प्रावृष् में ग्रामानुग्राम विहार करना नहीं कल्पता है। किन्तु पांच कारणों से विहार करना कल्पता है, जैसे
१. शरीर, उपकरण आदि के अपहरण का भय होने पर,
२. दुर्भिक्ष होने पर, . ३. किसी के द्वारा व्यथित किये जाने पर या ग्राम से निकाल दिये जाने पर,
४. बाढ़ आ जाने पर, ५. अनार्यों के द्वारा उपद्रव किये जाने पर (९९)।
वर्षावास-सूत्र
१००– वासावासं पज्जोसविताणं णो कप्पइ णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा गामाणुगामं दूइजित्तए।
पंचहिं ठाणेहिं कप्पइ, तं जहा—१. णाणट्ठयाए, २. दंसणट्ठयाए, ३. चरित्तट्ठयाए, ४. आयरियउवज्झाया वा से वीसुंभेजा, ५. आयरिय-उवज्झायाण वा बहिया वेआवच्चकरणयाए।
वर्षावास में पर्युषणाकल्प करने वाले निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थियों को ग्रामानुग्राम विहार करना नहीं कल्पता है। किन्तु पांच कारणों से विहार करना कल्पता है, जैसे
१. विशेष ज्ञान की प्राप्ति के लिए। २. दर्शन-प्रभावक शास्त्र का अर्थ पाने के लिए। ३. चारित्र की रक्षा के लिए। ४. आचार्य या उपाध्याय की मृत्यु हो जाने पर अथवा उनका कोई अति महत्त्वपूर्ण कार्य करने के लिए। ५. वर्षाक्षेत्र से बाहर रहने वाले आचार्य या उपाध्याय की वैयावृत्त्य करने के लिए (१००)।
विवेचन— वर्षाकाल में एक स्थान पर रहने को वर्षावास कहते हैं । यह तीन प्रकार कहा गया है जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट।