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________________ ४४० स्थानाङ्गसूत्रम् (३१)। विवेचनउदार या स्थूल पुद्गलों से निर्मित, रस, रक्तादि सप्त धातुमय शरीर को औदारिक शरीर कहते हैं। यह मनुष्य और तिर्यग्गति के जीवों के ही होता है। नाना प्रकार के रूप बनाने में समर्थ शरीर को वैक्रिय शरीर कहते हैं। यह देव और नारकी जीवों के होता है तथा विक्रियालब्धि को प्राप्त करने वाले मनुष्य, तिर्यंचों और वायुकायिक जीवों के भी होता है। तपस्याविशेष से चतुर्दश पूर्वधर महामुनि के आहारकलब्धि के प्रभाव से आहारकशरीर उत्पन्न होता है। जब उक्त मुनि को सूक्ष्म तत्त्व में कोई शंका उत्पन्न होती है और वहाँ पर सर्वज्ञ का अभाव होता है। तब उक्त शरीर का निर्माण होकर उसके मस्तक से एक हाथ का पुतला निकल कर सर्वज्ञ के समीप पहुँचता है और उनसे शंका का समाधान पाकर वापिस आकर के मुनि के शरीर में प्रविष्ट हो जाता है। इस शरीर का निर्माण, निर्गमन और वापिस प्रवेश एक मुहूर्त के भीतर ही हो जाता है। जिस शरीर के निमित्त से शरीर में तेज, दीप्ति और भोजन-पाचन की शक्ति प्राप्त होती है, उसे तैजसशरीर कहते हैं। यह दो प्रकार का होता है—१. निस्सरणात्मक (बाहर निकलने वाला) और २. अनिस्सरणात्मक (बाहर न निकलने वाला)। निस्सरणात्मक तैजस शरीर तो तेजोलब्धिसम्पन्न मुनि के प्रकट होता है और वह शाप और अनुग्रह करने में समर्थ होता है। अनिस्सरणात्मक तैजस शरीर सभी संसारी जीवों के होता है। कर्मों के बीजभूत उत्पादक शरीर को या आठों कर्मों के समुदाय को कार्मण शरीर कहते हैं। यहाँ यह ज्ञातव्य है कि औदारिक शरीर से आगे के शरीर उत्तरोत्तर सूक्ष्म होते हैं, किन्तु उनके प्रदेशों की संख्या आहारक शरीर तक असंख्यातगुणित और आगे के दोनों शरीरों के प्रदेश अनन्तगुणित होते हैं। तैजस और कार्मण शरीर सभी संसारी जीवों के सर्वदा ही पाये जाते हैं। केवल ये दोनों शरीर विग्रहगति में ही पाये जाते हैं। शेष समय में उनके साथ औदारिक शरीर मनुष्य-तिर्यंचों में तथा वैक्रिय शरीर देव-नारकों में, इस प्रकार तीन-तीन शरीर पाये जाते हैं। विक्रियालब्धिसम्पन्न मनुष्य तिर्यंचों के या आहारकलब्धिसम्पन्न मनुष्यों के चार शरीर एक साथ पाये जाते हैं। किन्तु पांचों शरीर एक साथ कभी भी किसी जीव के नहीं पाये जाते, क्योंकि वैक्रिय और आहारक शरीर एक जीव के एक साथ नहीं होते हैं। तीर्थभेद-सूत्र ___३२– पंचहि ठाणेहिं पुरिम-पच्छिमगाणं जिणाणं दुग्गमं भवति, तं जहा—दुआइक्खं, दुविभजं, दुपस्सं, दुतितिक्खं, दुरणुचरं। प्रथम और अन्तिम तीर्थंकर जनों के शासन में पांच स्थान दुर्गम (दुर्बोध्य) होते हैं, जैसे१. दुराख्येय- धर्मतत्त्व का व्याख्यान करना दुर्गम होता है। २. दुर्विभाज्य- तत्त्व का नय-विभाग से समझाना दुर्गम होता है। ३. दुर्दर्श— तत्त्व का युक्तिपूर्वक निदर्शन करना दुर्गम होता है। ४. दुस्तितिक्ष– उपसर्ग-परीषहादि का सहन करना दुर्गम होता है। ५. दुरनुचर- धर्म का आचरण करना दुर्गम होता है (३२)। विवेचन- प्रथम तीर्थंकर के साधु ऋजु (सरल) और जड़ (अल्प या मन्दज्ञानी) होते हैं, इसलिए उनको
SR No.003440
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthananga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Dictionary, & agam_sthanang
File Size16 MB
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