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________________ ३८२ स्थानाङ्गसूत्रम् पुनः पुरुष चार प्रकार के कहे गये हैं, जैसे १. श्रेयान् और श्रेयान्सदृश कोई पुरुष सद्- ज्ञान की अपेक्षा श्रेयान् होता है, किन्तु सदाचार की अपेक्षा द्रव्य से श्रेयान् के सदृश है, भाव से नहीं । २. श्रेयान् और पापीयान्सदृश — कोई पुरुष सद्- ज्ञान की अपेक्षा तो श्रेयान् होता है, किन्तु सदाचार की अपेक्षा द्रव्य से पापीयान् के सदृश होता है, भाव से नहीं । ३. पापीयान् और श्रेयान्सदृश — कोई पुरुष कुज्ञान की अपेक्षा पापीयान् होता है, किन्तु सदाचार की अपेक्षा द्रव्य से श्रेयान् सदृश होता है, भाव से नहीं । ४. पापीयान् और पापीयान् सदृश — कोई पुरुष कुज्ञान की अपेक्षा पापीयान् होता है और सदाचार की अपेक्षा द्रव्य से पापीयान् सदृश होता है, भाव से नहीं (५२४) । ५२५ - चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा — सेयंसे णाममेगे सेयंसेत्ति मण्णति, सेयंसे णाममेगे पावंसेत्ति मण्णति, पावंसे णाममेगे सेयंसेत्ति मण्णति, पावंसे णाममेगे पावंसेत्ति मण्णति । पुनः पुरुष चार प्रकार के कहे गये हैं, जैसे— १. श्रेयान्, श्रेयान्मन्य— कोई पुरुष श्रेयान् होता है और अपने आपको श्रेयान् मानता है। २. श्रेयान् और पापीयान्मन्य कोई पुरुष श्रेयान् होता है, किन्तु अपने आपको पापीयान् मानता है। ३. पापीयान् और श्रेयान्मन्य- कोई पुरुष पापीयान् होता है, किन्तु अपने आपको श्रेयान् मानता है। ४. पापीयान् और पापीयान्मन्य—–— कोई पुरुष पापीयान् होता है और अपने आपको पापीयान् ही मानता है (५२५)। ५२६— चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा — सेयंसे णाममेगे सेयंसेत्तिसालिसए मण्णति, सेयंसे णाममेगे पावंसेत्तिसालिसए मण्णति, पावंसे णाममेगे सेयंसेत्तिसालिसए मण्णति, पावंसे णाममेगे पावसेत्तिसालिसए मण्णति । पुनः पुरुष चार प्रकार के कहे गये हैं, जैसे— १. श्रेयान्, श्रेयान् - सदृशम्मन्य — कोई पुरुष श्रेयान् होता है और अपने आपको श्रेयान् के सदृश मानता है। २. श्रेयान् और पापीयान्-सदृशम्मन्य कोई पुरुष श्रेयान् होता है, किन्तु अपने आपको पापीयान् के सदृश मानता है। ३. पापीयान् और श्रेयान्-सदृशम्मन्य कोई पुरुष पापीयान् होता है, किन्तु अपने आपको श्रेयान् के सदृश मानता है। ४. पापीयान् और पापीयान् सदृशम्मन्य कोई पुरुष पापीयान् होता है और अपने आपको पापीयान् के सदृश ही मानता है (५२६) । आख्यापन-सूत्र ५२७ – चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा — आघवइत्ता णाममेगे णो पविभावइत्ता, पविभावइत्ता णाममेगे णो आघवइत्ता, एगे आघवइत्तावि पविभावइत्तावि, एगे णो आघवइत्ता णो
SR No.003440
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthananga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Dictionary, & agam_sthanang
File Size16 MB
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