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________________ चतुर्थ स्थान- तृतीय उद्देश ३. कुलसम्पन्न भी, जयसम्पन्न भी—— कोई घोड़ा कुलसम्पन्न भी होता है और जयसम्पन्न भी होता है। ४. न कुलसम्पन्न, न जयसम्पन्न — कोई घोड़ा न कुलसम्पन्न ही होता है और न जयसम्पन्न ही होता है । इसी प्रकार पुरुष भी चार प्रकार के कहे गये हैं, जैसे १. कुलसम्पन्न, न जयसम्पन्न — कोई पुरुष कुलसम्पन्न होता है, किन्तु जयसम्पन्न नहीं होता । २. जयसम्पन्न, न कुलसम्पन्न — कोई पुरुष जयसम्पन्न तो होता है, किन्तु कुलसम्पन्न नहीं होता। ३. कुलसम्पन्न भी, जयसम्पन्न भी— कोई पुरुष कुलसम्पन्न भी होता है और जयसम्पन्न भी होता है । ४. न कुलसम्पन्न, न जयसम्पन्न — कोई पुरुष न कुलसम्पन्न होता है और न जयसम्पन्न ही होता है (४७६)। बलन-सूत्र ३६३ ४७७– चत्तारि पकंथगा पण्णत्ता, तं जहा— बलसंपण्णे णाममेगे णो रूवसंपण्णे, रूवसंपण्णे णामगे णो बलसंपणे, एगे बलसंपण्णेवि रूवसंपण्णेवि, एगे णो बलसंपण्णे णो रूवसंपण्णे । एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा बलसंपण्णे णाममेगे णो रूवसंपण्णे, रूवसंपण्णे णाममेगे णो बलसंपण्णे, एगे बलसंपण्णेवि रूवसंपण्णेवि, एगे णो बलसंपण्णे णो रूवसंपण्णे । घोड़े चार प्रकार के कहे गये हैं, जैसे— १. बलसम्पन्न, न रूपसम्पन्न — कोई घोड़ा बलसम्पन्न होता है, किन्तु रूपसम्पन्न नहीं होता । २. रूपसम्पन्न, न बलसम्पन्न — कोई घोड़ा रूपसम्पन्न तो होता है, किन्तु बलसम्पन्न नहीं होता। ३. बलसम्पन्न भी, रूपसम्पन्न भी— कोई घोड़ा बलसम्पन्न भी होता है और रूपसम्पन्न भी होता है । ४. न बलसम्पन्न, न रूपसम्पन्न — कोई घोड़ा न बलसम्पन्न ही होता है और न रूपसम्पन्न ही होता है । इसी प्रकार पुरुष भी चार प्रकार के कहे गये हैं, जैसे— १. बलसम्पन्न, न रूपसम्पन्न — कोई पुरुष बलसम्पन्न होता है, किन्तु रूपसम्पन्न नहीं होता । २. रूपसम्पन्न, न बलसम्पन्न — कोई पुरुष रूपसम्पन्न तो होता है, किन्तु बलसम्पन्न नहीं होता । ३. बलसम्पन्न भी, रूपसम्पन्न भी— कोई पुरुष बलसम्पन्न होता है और रूपसम्पन्न भी होता है । ४. न बलसम्पन्न, न रूपसम्पन्न — कोई पुरुष न बलसम्पन्न होता है और न रूपसम्पन्न ही होता है (४७७)। ४७८ - चत्तारि पकंथगा पण्णत्ता, तं जहा बलसंपण्णे णाममेगे णो जयसंपण्णे, जयसंपण्णे णाममेगे णो बलसंपणे, एगे बलसंपण्णेवि जयसंपण्णेवि, एगे णो बलसंपण्णे णो जयसंपण्णे । एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा बलसंपण्णे णाममेगे णो जयसंपण्णे, जयसंपणे णाममे णो बलसंपणे, एगे बलसंपण्णेवि जयसंपण्णेवि, एगे णो बलसंपण्णे णो जयसंपण्णे । पुन: घोड़े चार प्रकार के कहे गये हैं, जैसे— १. बलसम्पन्न, न जयसम्पन्न — कोई घोड़ा बलसम्पन्न होता है, किन्तु जयसम्पन्न नहीं होता । २. जयसम्पन्न, न बलसम्पन्न कोई घोड़ा जयसम्पन्न तो होता है, किन्तु बलसम्पन्न नहीं होता। ३. बलसम्पन्न भी, जयसम्पन्न भी— कोई घोड़ा बलसम्पन्न भी होता है और जयसम्पन्न भी होता है ।
SR No.003440
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthananga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Dictionary, & agam_sthanang
File Size16 MB
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