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________________ चतुर्थ स्थान प्रथम उद्देश २२१ ४. अनुप्रेक्षा— अर्थ का चिन्तन करना (६७)। ६८ - धम्मस्स णं झाणस्स चत्तारि अणुप्पेहाओ पण्णत्ताओ, तं जहा—एगाणुप्पेहा, अणिच्चाणुप्पेहा, असरणाणुप्पेहा, संसाराणुप्पेहा । धर्म्यध्यान की चार अनुप्रेक्षाएं कही गई हैं, जैसे १. एकात्वानुप्रेक्षा — जीव के सदा अकेले परिभ्रमण और सुख-दुःख भोगने का चिन्तन करना । २. अनित्यानुप्रेक्षा— सांसारिक वस्तुओं की अनित्यता का चिन्तन करना। ३. अशरणानुप्रेक्षा— जीव को कोई दूसरा धन परिवार आदि शरण नहीं, ऐसा चिन्तन करना । ४. संसारानुप्रेक्षा— चतुर्गति रूप संसार की दशा का चिन्तन करना (६८)। २. विवेचन शास्त्रों में धर्म के स्वरूप के पांच प्रकार प्रतिपादन किये गये हैं- १. अहिंसालक्षण धर्म, क्षमादि दशलक्षण धर्म, ३. मोह तथा क्षोभ से विहीन परिणामरूप धर्म, ४. सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्ररूप रत्नत्रय धर्म और ५. वस्तुस्वभाव धर्म। उक्त प्रकार के धर्मों के अनुकूल प्रवर्तन करने को धर्म्य कहते हैं । धर्म्यध्यान की सिद्धि के लिए वाचना आदि चार आलम्बन या आधार बताये गये हैं, और उसकी स्थिरता के लिए एकत्व आदि चार अनुप्रेक्षाएं कही गई हैं। उस धर्म्यध्यान के आज्ञाविचय आदि चार भेद हैं और आज्ञारुचि आदि उसके चार लक्षण कहे गये हैं। आर्त्त और रौद्र इन दोनों दुर्ध्यानों से उपरत होकर कषायों की मन्दता से शुभ अध्यवसाय या शुभ उपयोगरूप पुण्यकर्म–सम्पादक जितने भी कार्य हैं, उन सब को करना, कराना और अनुमोदन करना, शास्त्रों का पठन-पाठन करना, व्रत, शील और समय का परिपालन करना और करने के लिए चिन्तन करना धर्म्यध्यान है । किन्तु यह नहीं भूलना चाहिए कि इन सब कर्त्तव्यों का अनुष्ठान करते समय जितनी देर चित्त एकाग्र रहता है, उतनी देर ही ध्यान होता है । छद्मस्थ का ध्यान अन्तर्मुहूर्त तक ही टिकता है, अधिक नहीं । ६९ – सुक्के झाणे चउव्विहे चउप्पडोआरे पण्णत्ते, तं जहा— पुहुत्तवितक्के सवियारी, गत्तवितक्के अवियारी, सुहुमकिरिए अणियट्टी, समुच्छिण्णकिरिए अप्पडिवाती । (स्वरूप, लक्षण, आलम्बन और अनुप्रेक्षा इन ) चार पदों में अवतरित शुक्लध्यान चार प्रकार का कहा गया है, जैसे १. पृथक्त्ववितर्क सविचार, २. एकत्ववितर्क अविचार, ३. सूक्ष्मक्रिय - अनिवृत्ति और ४. समुच्छिन्नक्रियअप्रतिपाति (६९) । विवेचन — जब कोई उत्तम संहनन का धारक सप्तम गुणस्थानवर्ती अप्रमत्त संयत मोहनीय कर्म के उपशमन या क्षपण करने के लिए उद्यत होता है और प्रति समय अनन्त गुणी विशुद्धि से प्रवर्धमान परिणाम वाला होता है, तब वह अपूर्वकरण नामक आठवें गुणस्थान में प्रवेश करता है। वहां पर शुभोपयोग की प्रवृत्ति दूर होकर शुद्धोपयोगरूप वीतराग परिणति और प्रथम शुक्लध्यान प्रारम्भ होता है, जिसका नाम पृथक्त्ववितर्क सविचार है । वितर्क का अर्थ है— भावश्रुत के आधार से द्रव्य, गुण और पर्याय का विचार करना । विचार का अर्थ है-अर्थ व्यंजन और योग का परिवर्तन । जब ध्यानस्थित साधु किसी एक द्रव्य का चिन्तन करता-करता उसके किसी एक गुणका चिन्तन करने लगता है और फिर उसी की किसी एक पर्याय का चिन्तन करने लगता है, तब उसके इस
SR No.003440
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthananga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Dictionary, & agam_sthanang
File Size16 MB
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