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चतुर्थ स्थान — प्रथम उद्देश
४. काष्ठ-खाद-समान भिक्षाक का तप छल्ली - खाद - घुण के समान कहा गया है।
विवेचन — जिस घुण कीट के मुख की भेदन - शक्ति जितनी अल्प या अधिक होती है, उसी के अनुसार वह त्वचा, छाल, काठ या सार को खाता है। जो भिक्षु प्रान्तवर्ती (बचा खुचा ) स्वल्प - रूखा-सूखा आहार करता है, उसके कर्म-क्षपण करने वाले तप की शक्ति सार को खाने वाले घुण के समान सबसे अधिक होती है। जो भिक्षु दूध, दही आदि विकृतियों से परिपूर्ण आहार करता है, उसके कर्म क्षपण (तप) की शक्ति त्वचा को खाने वाले घुण के समान अत्यल्प होती है। जो भिक्षु विकृति-रहित आहार करता है, उसकी कर्म क्षपण शक्ति काठ को खाने वाले घुण के समान अधिक होती है। जो भिक्षु दूध, दही आदि विकृतियों को खाता है, उसकी कर्म-क्षपण - शक्ति छाल को खाने वाले घुण के समान अल्प होती है। उक्त चारों में त्वक्- खाद-समान भिक्षु सर्वश्रेष्ठ उत्तम है । छल्ली - खादसमान भिक्षु मध्यम है। काष्ठ - खाद - समान भिक्षु जघन्य है और सार - खाद - समान भिक्षु जघन्यतर श्रेणी का है। श्रेणी के समान ही उनके तप में भी तारतम्य - हीनाधिकता जाननी चाहिए। पहले का तप अप्रधानतर, दूसरे का अप्रधानतर तीसरे का प्रधान और चौथे का अप्रधान तप है, ऐसा टीकाकार का कथन है ।
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तृणवनस्पति-सूत्र
५७— चउव्विहा तणवणस्सतिकाइया पण्णत्ता, तं जहा— अग्गबीया, मूलबीया, पोरबीया, खंबीया ।
तृणवनस्पतिकायिक जीव चार प्रकार के कहे गये हैं, जैसे—
१. अग्रबीज जिस वनस्पति का अग्रभाग बीज हो जैसे— कोरण्ट आदि ।
२. मूलबीज- जिस वनस्पति का मूल बीज । जैसे— कमल, जमीकन्द आदि ।
३. पर्वबीज जिस वनस्पति का पर्व बीज हो। जैसे— ईख, गन्ना आदि ।
४. स्कन्धबीज जिस वनस्पति का स्कन्ध बीज हो। जैसे— सल्लकी वृक्ष आदि (५७) ।
अधुनोपपन्न - नैरयिक-सूत्र
५८ - चउहिं ठाणेहिं अहुणोववण्णे णेरइए णिरयलोगंसि इच्छेज्जा माणुसं लोगं हव्वमागच्छित्तए, णो चेव णं संचाएति हव्वमागच्छित्तए—
१. अहुणोववण्णे रइए णिरयलोगंसि समुब्भूयं वेयणं वेयमाणे इच्छेज्जा माणुसं लोगं हव्वमागच्छित्तए, णो चेव णं संचाएति हव्वमागच्छित्तए ।
२. अहुणोववण्णे णेरइए णिरयलोगंसि णिरयपालेहिं भुज्जो - भुज्जो अहिट्ठिज्जमाणे इच्छेज्जा माणुसं लोगं हव्वमागच्छित्तए, णो चेव णं संचाएति हव्वमागच्छित्तए ।
३. अहुणोववण्णे रइए णिरयवेयणिज्जंसि कम्मंसि अक्खीणंसि अवेइयंसि अणिजिणंसि इच्छेज्जा माणुसं लोगं हव्वमागच्छित्तए, णो चेव णं संचाएति हव्वमागच्छित्तए ।
४. [ अणोववणे इए णिरयाउअंसि कम्मंसि जाव अक्खीणंसि जाव अवेइयंसि अणिज्जिण्णंसि इच्छेज्जा माणुसं लोगं हव्वमागच्छित्तए ] णो चेव णं संचाएति हव्वमागच्छित्तए ।