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________________ १९२ स्थानाङ्गसूत्रम् रुचि नहीं करता। उसे परीषह प्राप्त होकर अभिभूत कर देते हैं, वह परीषहों से जूझ-जूझ कर] उन्हें अभिभूत नहीं कर पाता (५२३)। विवेचन— प्रस्तुत सूत्र में जिन तीन स्थानों का श्रद्धा आदि नहीं करने पर अनगार परीषहों से अभिभूत होता है वे हैं—निर्ग्रन्थ प्रवचन, पंच महाव्रत और छह जीव-निकाय। निर्ग्रन्थ साधु को इन तीनों स्थानों का श्रद्धालु होना अत्यन्त आवश्यक है, अन्यथा उसकी सारी प्रव्रज्या उसी के लिए दुःखदायिनी हो जाती है। इस सम्बन्ध में सूत्रनिर्दिष्ट विशिष्ट शब्दों का अर्थ इस प्रकार है अहित—अपथ्यकर। अशुभ–पापरूप। अक्षम असंगतता, असमर्थता। अनिःश्रेयस अकल्याणकर, अशिवकारक। अनानुगामिकता—अशुभानुबन्धिता, अशुभ-शृंखला। शंकित शंकाशील या संशयवान्। कांक्षित मतान्तर की आकांक्षा रखने वाला।विचिकित्सिक ग्लानि रखने वाला। भेदसमापन्न—फलप्राप्ति के प्रति दुविधाशाली। कलुषसमापन कलुषित मन वाला। जो साधु दीक्षा स्वीकार करने के पश्चात् उक्त तीन स्थानों पर शंकित, कांक्षित यावत् कलुषसमापन्न रहता है, उसके लिए वे तीनों ही स्थान अहितकर यावत् अनानुगामिता के लिए होते हैं और वह परीषहों पर विजय न पाकर उनसे. पराभव को प्राप्त होता है। श्रद्धालु-विजय-सूत्र ५२४- तओ ठाणा ववसियस्स हिताए [सुभाए खमाए णिस्सेसाए] आणुगामियणाए भवंति, तं जहा १. से णं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए णिग्गंथे पावयणे णिस्संकिते [णिक्कंखिते णिव्वितिगिच्छिते णो भेदसमावण्णे ] णो कलुससमावण्णे णिग्गंथं पावयणं सद्दहति पत्तियति रोएति, से परिस्सहे अभिमुंजिय-अभिमुंजिय अभिभवति, णो तं परिस्सहा अभिमुंजिय-अभिमुंजिय अभिभवंति। २. से णं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए समाणे पंचेहिं महव्वएहिं णिस्संकिए णिक्कंखिए [णिव्वितिगिच्छिते णो भेदसमावण्णे णो कलुससमावण्णे पंच महव्वताई सद्दहति पत्तियति रोएति, से ] परिस्सहे अभिमुंजिय-अभिमुंजिय अभिभवइ, णो तं परिस्सहा अभिमुंजिय-अभिमुंजिय अभिभवंति। ३.से णं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए छहिं जीवणिकाएहिं णिस्संकिते[णिक्कंखिते णिव्वितिगिच्छिते णो भेदसमावण्णे णो कलुससमावण्णे छ जीवणिकाए सद्दहति पत्तियति रोएति, से] परिस्सहे अभिमुंजिय-अभिमुंजिय अभिभवति, णो तं परिस्सहा अभिजुंजिय-अभिमुंजिय अभिभवंति। व्यवसित (श्रद्धालु) निर्ग्रन्थ के लिए तीन स्थान हित [शुभ, क्षम, निःश्रेयस] और अनुगामिता के कारण होते १. जो मुण्डित हो अगार से अनगार धर्म में प्रव्रजित होकर निर्ग्रन्थ प्रवचन में निःशंकित (नि:कांक्षित, निर्विचिकित्सिक, अभेदसमापन्न) और अकलुषसमापन्न होकर निर्ग्रन्थ प्रवचन में श्रद्धा करता है, प्रीति करता है,
SR No.003440
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthananga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Dictionary, & agam_sthanang
File Size16 MB
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