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स्थानाङ्गसूत्रम्
विवेचन- जब कोई राजा युद्धादि को जीतकर नगर में प्रवेश करता है या विशिष्ट अतिथि जब नगर में आते हैं, उस समय की जाने वाली नगर-शोभा या सजावट अतियान ऋद्धि कही जाती है। जब राजा युद्ध के लिए या किसी मांगलिक कार्य के लिए नगर से बाहर ठाठ-बाट के साथ निकलता है, उस समय की जाने वाली शोभासजावट निर्याण-ऋद्धि कहलाती है।
५०४- गणिड्डी तिविहा पण्णत्ता, तं जहा—णाणिड्डी, दंसणिड्डी, चरित्तिड्डी। अहवा-गणिड्डी तिविहा पण्णत्ता, तं जहा–सचित्ता, अचित्ता, मीसिता। गणि-ऋद्धि तीन प्रकार की कही गई है१. ज्ञान-ऋद्धि-विशिष्ट श्रुत-सम्पदा की प्राप्ति । २. दर्शन-ऋद्धि-प्रवचन में निःशंकितादि एवं प्रभावक प्रवचनशक्ति आदि। ३. चारित्र-ऋद्धि- निरतिचार चारित्र प्रतिपालना आदि। अथवा गणि-ऋद्धि तीन प्रकार की कही गई है१.सचित्त-ऋद्धि-शिष्य-परिवार आदि। २. अचित्त-ऋद्धि- वस्त्र, पात्र, शास्त्र-संग्रहादि।
३. मिश्र-ऋद्धि- वस्त्र-पात्रादि से युक्त शिष्य-परिवारादि (५०४)। गौरव-सूत्र
५०५- तओ गारवा पण्णत्ता, तं जहा—इड्डीगारवे, रसगारवे, सातागारवे। गौरव तीन प्रकार के कहे गये हैं१. ऋद्धि-गौरव— राजादि के द्वारा पूज्यता का अभिमान । २. रस-गौरव- दूध, घृत, मिष्ट रसादि की प्राप्ति का अभिमान।
३. साता-गौरव-सुखशीलता, सुकुमारता संबंधी गौरव (५०५)। करण-सूत्र
५०६-तिविहे करणे पण्णत्ते, तं जहा धम्मिए करणे, अधम्मिए करणे, धम्मियाधम्मिए करणे।
करण तीन प्रकार का कहा गया है१. धार्मिक-करण- संयमधर्म के अनुकूल अनुष्ठान। २. अधार्मिक-करण-संयमधर्म के प्रतिकल आचरण।
३. धार्मिक/धार्मिक-करण— कुछ धर्माचरण और अधर्माचरणरूप प्रवृत्ति (५०६)। स्वाख्यातधर्म-सूत्र
५०७– तिविहे भगवता धम्मे पण्णत्ता, तं जहा—सुअधिज्झिते, सुज्झाइते, सुतवस्सिते। जहा