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तृतीय स्थान प्रथम उद्देश
११३ योनि-सूत्र __ १००– तिविहा जोणी पण्णत्ता, तं जहा–सीता, उसिणा, सीओसिणा। एवं—एगिदियाणं विगलिंदियाणं तेउकाइयवज्जाणं संमुच्छिमपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं संमुच्छिममणुस्साण य। १०१तिविहा जोणी पण्णत्ता, तं जहा- सचित्ता, अचित्ता, मीसिया। एवं—एगिंदियाणं विगलिंदियाणं संमुच्छिमपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं संमुच्छिममणुस्साण य । १०२-तिविहा जोणी पण्णत्ता, तं जहा संवुडा, वियडा, संवुड-वियडा।
__ योनि (जीव की उत्पत्ति का स्थान) तीन प्रकार की कही गई है शीतयोनि, उष्णयोनि और शीतोष्ण(मिश्र) योनि । तेजस्कायिक जीवों को छोड़कर एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय, सम्मूर्छिम पंचेन्द्रिय तिर्यंच और सम्मूर्छिम मनुष्यों के तीनों ही प्रकार की योनियां कही गई हैं (१००)। पुनः योनि तीन प्रकार की कही गई है सचित्त, अचित्त
और मिश्र (सचित्ताचित्त)। एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय, सम्मूर्च्छिमपंचेन्द्रिय तिर्यंच तथा सम्मूर्च्छिम मनुष्यों के तीनों ही प्रकार की योनियां कही गई हैं (१०१)। पुनः योनि तीन प्रकार की होती है—संवृत, विवृत और संवृतविवृत (१०२)।
विवेचन— संस्कृत टीकाकार ने संवृत्त का अर्थ 'घटिकालयवत् संकटा' किया है और उसका हिन्दी अर्थ संकड़ी किया गया है। किन्तु आचार्य पूज्यपाद ने सर्वार्थसिद्ध में संवृत का अर्थ 'सम्यग्वृतःसंवृतः, दुरूपलक्ष्यः प्रदेशः' किया है जिसका अर्थ अच्छी तरह से आवृत या ढका हुआ स्थान होता है। इसी प्रकार विवृत का अर्थ खुला हुआ स्थान और संवृतविवृत का अर्थ कुछ खुला, कुछ ढका अर्थात् अधखुला स्थान किया है। लाडनूं वाली प्रति में संवृत का अर्थ संकड़ी, विवृत का अर्थ चौड़ी और संवृतविवृत का अर्थ कुछ संकड़ी कुछ चौड़ी योनि किया है।
१०३– तिविहा जोणी पण्णत्ता, तं जहा—कुम्मुण्णया, संखावत्ता, वंसीवत्तिया।
१. कुम्मुण्णया णं जोणी उत्तमपुरिसमाऊणं। कुम्मुण्णयाए णं जोणिए तिविहा उत्तमपुरिसा गब्भं वक्कमंति, तं जहा–अरहंता, चक्कवट्टी, बलदेववासुदेवा।
२. संखावत्ता णं जोणी इत्थीरयणस्स। संखावत्ताए णं जोणीए बहवे जीवा य पोग्गला य वक्कमंति, विउक्कमंति, चयंति, उववज्जति, णो चेव णं णिप्फवंति।
३. वंसीवत्तिता णं जोणी पिहजणस्स। वंसीवत्तिताए णं जोणिए बहवे पिहज्जणा गब्भं वक्कमंति।
पुनः योनि तीन प्रकार की कही गई है—कूर्मोन्नत (कछुए के समान उन्नत) योनि, शंखावर्त (शंख के समान आवर्तवाली) योनि, और वंशीपत्रिका (बांस के पत्ते के समान आकार वाली) योनि।
१. कूर्मोन्नत योनि उत्तम पुरुषों की माताओं की होती है। कूर्मोन्नत योनि में तीन प्रकार के पुरुष गर्भ में आते हैं—अरहन्त (तीर्थंकर), चक्रवर्ती और बलदेव-वासुदेव।
२. शंखावर्तयोनि (चक्रवर्ती के) स्त्रीरत्न की होती है। शंखावर्तयोनि में बहुत से जीव और पुद्गल उत्पन्न और विनष्ट होते हैं, किन्तु निष्पन्न नहीं होते।
३. वंशीपत्रिकायोनि सामान्य जनों की माताओं की होती है। वंशीपत्रिका योनि में अनेक सामान्य जन गर्भ में