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________________ द्वितीय स्थान–चतुर्थ उद्देश दो प्रकार से आत्मा शरीर का स्पर्श कर बाहर निकलती है—देश से (कुछ प्रदेशों से, या शरीर के किसी भाग से) आत्मा शरीर का स्पर्श कर बाहर निकलती है और सर्व प्रदेशों से आत्मा शरीर का स्पर्श कर बाहर निकलती है (३९८)। दो प्रकार से आत्मा शरीर को स्फुरित (स्पन्दित) कर बाहर निकलती है—एक देश से आत्मा शरीर को स्फुरित कर बाहर निकलती है और सर्व प्रदेशों से आत्मा शरीर को स्फुरित कर बाहर निकलती है (३९९)। दो प्रकार से आत्मा शरीर को स्फुटित कर बाहर निकलती है—एक देश से आत्मा शरीर को स्फुटित कर बाहर निकलती है और सर्व प्रदेशों से आत्मा शरीर को स्फुटित कर बाहर निकलती है (४००)। दो प्रकार से आत्मा शरीर को संवर्तित (संकुचित) कर बाहर निकलती है—एक देश से आत्मा शरीर को संवर्तित कर बाहर निकलती है और सर्व प्रदेशों से आत्मा शरीर को संवर्तित कर बाहर निकलती है (४०१)। दो प्रकार से आत्मा शरीर को निर्वर्तित (जीव-प्रदेशों से अलग) कर बाहर निकलती है—एक देश से आत्मा शरीर को निर्वर्तित कर बाहर निकलती है और सर्व प्रदेशों से आत्मा शरीर को निर्वर्तित कर बाहर निकलती है (४०२)। विवेचन— इन सूत्रों में बतलाया गया है कि जब आत्मा का मरण-काल आता है, उस समय वह शरीर के किसी एक भाग से भी बाहर निकल जाती है अथवा सर्व शरीर से भी एक साथ निकल जाती है। संसारी जीवों के प्रदेशों का बहिर्गमन किसी एक भाग से होता है और सिद्ध होने वाले जीवों के प्रदेशों का निर्गमन सर्वाङ्ग से होता है। आत्म-प्रदेशों के बाहर निकलते समय शरीर में होने वाली कम्पन, स्फुरण और संकोचन और निर्वतन दशाओं का उक्त सूत्रों द्वारा वर्णन किया गया है। क्षय-उपशम-पद __ ४०३- दोहिं ठाणेहिं आता केवलिपण्णत्तं धम्मं लभेजा सवणयाए, तं महा—खएण चेव उवसमेण चेव। ४०४ – दोहिं ठाणेहिं आता केवलं बोधिं बुझेजा, केवलं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइज्जा, केवलं बंभचेरवासमावसेजा, केवलेणं संजमेणं संजमेजा, केवलेणं संवरेणं संवरेजा, केवलमाभिणिबोहियणाणं उप्पाडेजा, केवलं सुयणाणं उप्पाडेजा, केवलं ओहिणाणं उप्पाडेजा, केवलं मणपज्जवणाणं उप्पाडेजा, तं जहा–खएण चेव, उवसमेण चेव। दो प्रकार से आत्मा केवलि-प्रज्ञप्त धर्म को सुन पाती है—कर्मों के क्षय से और उपशम से (४०३)। दो प्रकार से आत्मा विशुद्ध बोधि का अनुभव करती है, मुण्डित हो घर छोड़कर सम्पूर्ण अनगारिता को पाती है, सम्पूर्ण ब्रह्मचर्यवास को प्राप्त करती है, सम्पूर्ण संयम के द्वारा संयत होती है, सम्पूर्ण संवर के द्वारा संवृत्त होती है, विशुद्ध आभिनिबोधिक ज्ञान को प्राप्त करती है, विशुद्ध श्रुतज्ञान को प्राप्त करती है, विशुद्ध अवधिज्ञान को प्राप्त करती है और विशुद्ध मनःपर्यव ज्ञान को प्राप्त करती है—क्षय से और उपशम से (४०४)। विवेचन– यद्यपि यहाँ पर धर्म-श्रवण, बोधि-प्राप्ति आदि सभी कार्य-विशेषों की प्राप्ति का कारण सामान्य से कर्मों का क्षय या उपशम कहा गया है, तथापि प्रत्येक स्थान की प्राप्ति विभिन्न कर्मों के क्षय, उपशम और क्षयोपशम से होती है। यथा—केवलिप्रज्ञप्त धर्म-श्रवण और बोध-प्राप्ति के लिए ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम
SR No.003440
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthananga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Dictionary, & agam_sthanang
File Size16 MB
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