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________________ द्वितीय स्थान–चतुर्थ उद्देश होता है । ३० मुहूर्त का एक अहोरात्र (दिन-रात), १५ अहोरात्र का एक पक्ष, दो पक्ष का एक मास, २ मास की एक ऋतु, तीन ऋतु का एक अयन, दो अयन का एक संवत्सर (वर्ष), पाँच संवत्सर का एक युग, बीस युग का एक शतवर्ष, दश शतवर्षों का एक सहस्र वर्ष और सौ सहस्र वर्षों का एक शतसहस्र या लाख वर्ष होता है। ८४ लाख वर्षों का एक पूर्वांग और ८४ लाख पूर्वांगों का एक पूर्व होता है। आगे की सब संख्याओं का ८४-८४ लाख से गुणित करते हुए शीर्षप्रहेलिका तक ले जाना चाहिए। शीर्षप्रहेलिका में ५४ अंक और १४० शून्य होते हैं । यह सबसे बड़ी संख्या मानी गई है। शीर्षप्रहेलिका की अंकों की उक्त संख्या स्थानांग के अनुसार है। किन्तु वीरनिर्वाण के ८४० वर्ष के बाद जो वलभी वाचना हुई, इसमें शीर्षप्रहेलिका की संख्या २५० अंक प्रमाण होने का उल्लेख ज्योतिष्करंड में मिलता है तथा उसमें नलिनांग और नलिन संख्याओं से आगे महानलिनांग, महानलिन आदि अनेक संख्याओं का भी निर्देश किया गया है। ___ शीर्षप्रहेलिका की अंक-राशि चाहे १९४ अंक-प्रमाण हो, अथवा २५० अंक-प्रमाण हो, पर गणना के नामों में शीर्षप्रहेलिका को ही अन्तिम स्थान प्राप्त है । यद्यपि शीर्षप्रहेलिका से भी आगे संख्यात काल पाया जाता है, तो भी सामान्य ज्ञानी के व्यवहार-योग्य शीर्षप्रहेलिका ही मानी गई है। इससे आगे के काल को उपमा के माध्यम से वर्णन किया गया है। पल्य नाम गड्ढे का है। एक योजन लम्बे चौड़े और गहरे गड्ढे को मेष के अति सूक्ष्म रोमों को कैंची से काटकर भरने के बाद एक-एक रोम को सौ-सौ वर्षों के बाद निकालने में जितना समय लगता है, उतने काल को एक पल्योपम कहते हैं। यह असंख्यात कोडाकोडी वर्षप्रमाण होता है। दश कोडाकोडी पल्योपमों का एक सागरोपम होता है। दश कोडाकोडी सागरोपम काल की एक उत्सर्पिणी होती है और अवसर्पिणी भी दश कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण होती है। शीर्षप्रहेलिका तक के काल का व्यवहार संख्यात वर्ष की आयुष्य वाले प्रथम पृथ्वी के नारक, भवनपति और व्यन्तर देवों के तथा भरत और ऐरवत क्षेत्र में सुषम-दुःषमा आरे के अन्तिम भाग में होने वाले मनुष्यों और तिर्यंचों के आयुष्य का प्रमाण बताने के लिए किया जाता है। इससे ऊपर असंख्यात वर्षों की आयुष्य वाले देव नारक और मनुष्य, तिर्यंचों के आयुष्य का प्रमाण पल्योपम से और उससे आगे के आयुष्य वाले देव-नारकों का आयुष्यप्रमाण सागरोपम से निरूपण किया जाता है। ३९०- गामाति वा णगराति वा णिगमाति वा रायहाणीति वा खेडाति वा कब्बडाति वा मडंबाति वा दोणमुहाति वा पट्टणाति वा आगराति वा आसमाति वा संबाहाति वा सण्णिवेसाइ वा घोसाइ वा आरामाइ वा उजाणाति वा वणाति वा वणसंडाति वा वावीति वा पुक्खरणीति वा सराति वा सरपंतीति वा अगडाति वा तलागाति वा दहाति वा णदीति वा पुढवीति वा उदहीति वा वातखंधाति वा उवासंतराति वा वलयाति वा विग्गहाति वा दीवाति वा समुद्दाति वा वेलाति वा वेइयाति वा दाराति वा तोरणाति वा जेरइयाति वा णेरइयावासाति वा जाव वेमाणियाति वा वेमाणियावासाति वा कप्पाति वा कप्पविमाणावासाति वा वासाति वा वासधरपव्वताति वा कूडाति वा कूडागाराति वा विजयाति वा रायहाणीति वा जीवाति वा अजीवाति या पवुच्चति।
SR No.003440
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthananga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Dictionary, & agam_sthanang
File Size16 MB
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