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________________ स्थानाङ्गसूत्रम् १०. महती-मोक प्रतिमा- इसकी विधि क्षुद्रक-मोक प्रतिमा के समान ही है। अन्तर केवल इतना है कि जब वह खा-पीकर स्वीकार की जाती है, तब वह सात दिन के उपवास से पूरी होती है और यदि बिना खाये-पीये स्वीकार की जाती है तो आठ दिन के उपवास से पूरी होती है। ११. यवमध्य-चन्द्र प्रतिमा- जिस प्रकार यव (जौ) का मध्य भाग स्थूल और दोनों ओर के भाग कृश होते हैं, उसी प्रकार से इस साधना में कवल (ग्रास) ग्रहण मध्य में सबसे अधिक और आदि-अन्त में सबसे कम किया जाता है। इसकी विधि यह है—इस प्रतिमा का साधक साधु शुक्लपक्ष की प्रतिपदा को एक कवल आहार लेता है। पुनः तिथि के अनुसार एक कवल आहार बढ़ाता हुआ शुक्लपक्ष की पूर्णिमा को पन्द्रह कवल आहार लेता है। पुनः कृष्णपक्ष की प्रतिपदा को १४ कवल आहार लेकर क्रम से एक-एक कवल घटाते हुए अमावस्या को उपवास करता है । चन्द्रमा की एक-एक कला शुक्लपक्ष में जैसे बढ़ती है और कृष्णपक्ष में एक-एक घटती है उसी प्रकार इस प्रतिमा में कवलों की वृद्धि और हानि होने से इसे यवमध्य चन्द्र प्रतिमा कहा गया है। १२. वज्रमध्य-चन्द्र प्रतिमा- जिस प्रकार वज्र का मध्य भाग कृश और आदि-अन्त भाग स्थूल होता है, उसी प्रकार जिस साधना में कवल-ग्रहण आदि-अन्त में अधिक और मध्य में एक भी न हो, उसे वज्रमध्य-चन्द्र प्रतिमा कहते हैं । इसे साधने वाला साधक कृष्णपक्ष की प्रतिपदा को १४ कवल आहार लेकर क्रम से चन्द्रकला के समान एक-एक कवल घटाते हुए अमावस्या को उपवास करता है। पुनः शुक्लपक्ष में प्रतिपदा के दिन एक कवल ग्रहण कर एक-एक कला वृद्धि के समान एक-एक कवल वृद्धि करते हुए पूर्णिमा को १५ कवल आहार ग्रहण करता है। सामायिक-पद २४९- दुविहे सामाइए पण्णत्ते, तं जहा—अगारसामाइए चेव, अणगारसामाइए चेव।। सामायिक दो प्रकार की कही गई है—अगार-(श्रावक) सामायिक अर्थात् देशविरति और अनगार-(साधु) सामायिक अर्थात् सर्वविरति (२४९)। जन्म-मरण-पद २५०- दोण्हं उववाए पण्णत्ते, तं जहा देवाणं चेव, णेरइयाणं चेव। २५१-- दोण्हं उव्वट्टणा, पण्णत्ता तं जहा–णेरइयाणं चेव, भवणवासीणं चेव। २५२- दोण्हं चवणे पण्णत्ते, तं जहा—जोइसियाणं चेव, वेमाणियाणं चेव। २५३-दोण्हं गब्भवक्वंती पण्णत्ता, तं जहा—मणुस्साणं चेव, पंचेंदियतिरिक्ख-जोणियाणं चेव। दो का उपपात जन्म कहा गया है—देवों और नारकों का (२५०)। दो का उद्वर्तन कहा गया है—नारकों का और भवनवासी देवों का (२५१)। दो का च्यवन होता है—ज्योतिष्क देवों का और वैमानिक देवों का (२५२)। दो की गर्भव्युत्क्रान्ति कही गई है—मनुष्यों की और पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिक जीवों की (२५३)। विवेचन—देव और नारकों का उपपात जन्म होता है । च्यवन का अर्थ है ऊपर से नीचे आना और उद्वर्तन नाम नीचे से ऊपर आने का है। नारक और भवनवासी देव मरण कर नीचे से ऊपर मध्यलोक में जन्म लेते हैं, अतः
SR No.003440
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthananga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Dictionary, & agam_sthanang
File Size16 MB
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