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[ सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध होने लगती है। इस प्रकार उत्तमोत्तम (उदार) मनुष्यसम्बन्धी भोगों का उपभोग करता हुआ वह पुरुष अपना जीवन व्यतीत करता है । वह व्यक्ति जब किसी एक नौकर को आज्ञा देता है तो चारपाँच मनुष्य विना कहे ही वहाँ आकर सामने खड़े हो जाते हैं, (और हाथ जोड़ कर पूछते हैं-) "देवों के प्रिय ! कहिये, हम आपकी क्या सेवा करें? क्या लाएं, क्या भेंट करें ?, क्या-क्या कार्य करें ? आपको क्या हितकर है, क्या इष्ट (इच्छित) है ? आपके मुख को कौन-सी वस्तु स्वादिष्ट लगती है ? बताइए।"
उस पुरुष को इस प्रकार सुखोपभोगमग्न देख कर अनार्य (शुद्धधर्माचरण से दूर = अनाड़ी) लोग यों कहते हैं-यह पुरुष तो सचमुच देव है ! यह पुरुष तो देवों से भी श्रेष्ठ (स्नातक) है। यह मानव तो देवों का-सा जीवन जी रहा है (अथवा देवों के समान बहुत-से लोगों के जीवन का आधार है)। इसके आश्रय से अन्य लोग भी आनन्दपूर्वक जीते हैं।
किन्तु इस प्रकार (भोगविलास में डूबे हुए) उसी व्यक्ति को देख कर आर्य पुरुष (विवेकी= धर्मिष्ठ) कहते हैं-यह पुरुष तो अत्यन्त क्रूर कर्मों में प्रवृत्त है, अत्यन्त धूर्त है (अथवा संसारभ्रमणकारी धूतों = कर्मों से अतिग्रस्त है), अपने शरीर की यह बहुत रक्षा (हिफाजत) करता है, यह दक्षिणदिशावर्ती नरक के कृष्णपक्षी नारकों में उत्पन्न होगा। यह भविष्य में दुर्लभबोधि प्राणी होगा।
कई मूढ जीव मोक्ष के लिए उद्यत (साधधर्म में दीक्षित) होकर भी इस (पूर्वोक्त) स्थान (विषय सुखसाधन) को पाने के लिए लालायित हो जाते हैं । कई गृहस्थ (अनुत्थित-संयम में अनुद्यत) भी इस (अतिभोगग्रस्त) स्थान (जीवन) को पाने की लालसा करते रहते हैं । कई अत्यन्त विषयसुखान्ध या तृष्णान्ध मनुष्य भी इस स्थान के लिए तरसते हैं।
(वस्तुतः) यह स्थान अनार्य (अनार्य आचरणमय होने से आर्यपुरुषों द्वारा अनाचरणीय) है, केवलज्ञान-रहित (या अशुद्ध) है, परिपूर्णसुखरहित (सद्गुण युक्त न होने से अपूर्ण-तुच्छ) है, सुन्यायवृत्ति से रहित है, संशुद्धि-पवित्रता से रहित है, मायादि शल्य को काटने वाला नहीं है, यह सिद्धि (मोक्ष) मार्ग नहीं है, यह मुक्ति (समस्त कर्मक्षयरूप मुक्ति) का मार्ग नहीं है, यह निर्वाण का मार्ग नहीं है, यह निर्याण (संसारसागर से पार होने का मार्ग नहीं है, यह सर्वदुःखों का नाशक मार्ग नहीं है, यह एकान्त मिथ्या और असाधु स्थान है।
यही अधर्मपक्षनामक प्रथम स्थान का विकल्प (विभंग) है, ऐसा (तीर्थकरदेव ने) कहा है।
विवेचन-अधर्मपक्षनामक प्रथम स्थान के विकल्पः-प्रस्तुत तीन लम्बे सूत्रपाठों (७०८ से ७१० तक) में शास्त्रकार अधर्मपक्षनामक प्रथम स्थान के सम्बन्ध में विभिन्न पहलुओं से विस्तारपूर्वक मुख्यतया पन्द्रह विकल्प प्रस्तुत करते हैं(१) अधर्मपक्षीय लोगों द्वारा अपनाई जानेवाली सावध विद्याएँ ।
उनके द्वारा अपनाए जाने वाले पापमय व्यवसाय । (३) उनके पापमय क्रू र आचार-विचार एवं व्यवहार । (४) उनकी विषयसुखभोगमयी चर्या। (५) उनके विषय में अनार्यों एवं पार्यों के अभिप्राय । (६) अधर्मपक्षीय अधिकारी और स्थान का स्वरूप । सावध विद्याएँ-अधर्मपक्षीय लोग अपनी-अपनी रुचि, दृष्टि या मनोवृत्ति के अनुसार भौम