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________________ क्रियास्थान : द्वितीय अध्ययन : सूत्र ७१० ] [८३ से लेकर प्रायामिनी तक ६४ प्रकार की सावध (पापमय) विद्याओं का तथा उनके प्रतिपादक शास्त्रों, ग्रन्थों आदि का अध्ययन करते हैं।' पापमय व्यवसाय कई अधर्मपक्षीय लोग अपने तथा परिवार आदि के लिए आनुगामिक से लेकर शौवान्तिक तक १४ प्रकार के व्यवसायिकों में से कोई एक बन कर अपना पापमय व्यवसाय चलाते हैं । वे इन पापमय व्यवसायों को अपनाने के कारण जगत् में महापापी के नाम से प्रसिद्ध हो जाते हैं । पापमय क्रूर प्राचार-विचार और व्यवहार-इन अधर्मपक्षीय लोगों के पापमय आचार विचार और व्यवहार के सम्बन्ध में सूत्रसंख्या ७१० में ग्यारह विकल्प प्रस्तुत किये हैं । वे संक्षेप में इस प्रकार हैं-(१) सभा में किसी पंचेन्द्रिय प्राणी को मारने का संकल्प करके उसे मारना, (२) किसी व्यक्ति से किसी तुच्छकारणवश रुष्ट होकर अनाज के खलिहान में आग लगा या ला देना, (३) असहिष्ण बनकर किसी के पशनों को अंगभंग करना या करा देना, (४) अतिरौद्र बनकर किसी की पशुशाला को झाड़ियों से ढक कर आग लगा या लगवा देना। (५) कुपित होकर किसी के कुण्डल, मणि आदि बहुमूल्य पदार्थों का हरण करना-कराना (६) अभीष्ट स्वार्थ सिद्ध न होने से क्रुद्ध होकर श्रमणों या माहनों के उपकरण चुराना या चोरी करवाना (७) अकारण ही किसी गृहस्थ की फसल में आग लगा या लगवा देना, (८) अकारण ही किसी के पशुओं का अंगभंग करना या करा देना। (8) अकारण ही किसी व्यक्ति की पशुशाला में कटीली झाड़ियों से ढक कर आग लगा या लगवा देना, (१०) अकारण ही किसी गृहस्थ के बहुमूल्य प्राभूषण या रत्न आदि चुरा लेना या चोरी करवाना, (११) साधु-द्रोही दुष्टमनोवृत्ति-वश साधुओं का अपमान, तिरस्कार करना, दूसरों के समक्ष उन्हें नीचा दिखाना, बदनाम करना आदि नीच व्यवहार करना, इन सब पापकृत्यों का भंयकर दुष्परिणाम उन्हें भोगना पड़ता है। उनकी विषयसुखभोगमयी चर्या—इसी सूत्र (७१०) में उन अधर्मपक्षीय लोगों के प्रातःकाल से लेकर रात्रि के शयनकाल तक की भोगी-विलासी जीवनचर्या का वर्णन भी किया गया है । उनके विषय में अनार्यों और प्रार्यों का अभिप्राय-अनार्य लोग उनकी भोगमग्न जिंदगी देख कर उन्हें देवतुल्य देव से भी श्रेष्ठ, आश्रितों का पालक आदि बताते हैं, आर्यलोग उनकी वर्तमान विषय सुखमग्नता के पीछे हिंसा आदि महान् पापों का परिणाम देखकर इन्हें क्रूरकर्मा, धूर्त, शरीरपोषक, विषयों के कीड़े आदि बताते हैं। अधर्मपक्ष के अधिकारी शास्त्रकार ने तीन कोटि के व्यक्ति बताए हैं-(१) प्रवजित होकर इस विषयसुखसाधनमय स्थान को पाने के लिए लालायित, (२) इस भोगग्रस्त अधर्म स्थान को पाने की लालसा करनेवाले गृहस्थ और (३) इस भोगविलासमय जीवन को पाने के लिए तरसने वाले तृष्णान्ध या विषयसुखभोगान्ध व्यक्ति । अधर्मपक्ष का स्वरूप-इस अधर्मपक्ष को एकान्त अनार्य, अकेवल, अपरिपूर्ण आदि तथा एकान्त मिथ्या और अहितकर बताया गया है । १. सूत्रकृतांग शीलांकवृत्ति, पत्रांक ३१८ से ३२६ तक का सारांश २. वही, पत्रांक ३१८ से ३२६ तक का निष्कर्ष
SR No.003439
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages282
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_sutrakritang
File Size20 MB
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