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क्रियास्थान : द्वितीय अध्ययन : सूत्र ७०९ ]
[७३ गुरु की चाल को बतानेवाला शास्त्र), (३८) उल्कापात (उल्कापात का सूचक शास्त्र), (३६) दिग्दाह (दिशादाह का सूचक शास्त्र) (४०) मृगचक्र (ग्रामादि में प्रवेश के समय मृगादि पशुओं के दर्शन का शुभाशुभफल बतानेवाला शास्त्र), (४१) वायंसपरिमण्डल (कौए आदि पक्षियों के बोलने का शुभाशुभफल बतानेवाला शास्त्र), (४२) पांसुवृष्टि (धूलिवर्षा का फलनिरूपक शास्त्र) (४३) केशवृष्टि (केशवर्षा का फलप्रतिपादक शास्त्र), (४४) मांसवृष्टि (मांसवर्षा का फलसूचक शास्त्र) (४५) रुधिरवृष्टि (रक्त-वर्षा का फल-निरूपक शास्त्र), (४६) वैताली (वैतालीविद्या, जिसके प्रभाव से अचेतन काष्ठ में भी चेतना-सी आ जाती है ), (४७) अर्द्ध वैताली (वैताली विद्या की विरोधिनी विद्या, अथवा जिस विद्या के प्रभाव से उठाया हुआ दण्ड गिरा दिया जाए) (४८) अवस्वापिनी (जागते मनुष्य को नींद में सुला देने वाली विद्या), (४६) तालोद्घाटिनी (तालों को खोल देनेवाली विद्या), (५०) श्वपाकी (चाण्डालों की विद्या), (५१) शाबरी विद्या (५२) द्राविड़ी' विद्या (५३) कालिंगी विद्या, (५४) गौरीविद्या (५५) गान्धारी विद्या, (५६) अवपतनी (नीचे गिरा देनेवालो विद्या), (५७) उत्पतनी (ऊपर उठा-उड़ा देने वाली विद्या), (५८) जृम्भणी (जमुहाई लेने सम्बन्धी अथवा मकान, वृक्ष या पुरुष को कंपा (हिला) देनेवाली विद्या) (५६) स्तम्भनी (जहाँ का तहाँ रोक देने-थमा देनेवाली विद्या), (६०) श्लेषणी (हाथ पैर आदि चिपका देनेवाली विद्या), (६१) आमयकरणी (किसी प्राणी को रोगी या ग्रहग्रस्त बना देनेवाली विद्या), (६२). विशल्यकरणी शरीर में प्रविष्ट शल्य को निकाल देनेवाली विद्या, (६३) प्रक्रमणी (किसी प्राणी को भूत-प्रेत आदि की बाधा–पीड़ा उत्पन्न कर देनेवाली विद्या) (६४) अन्तर्धानी (जिस विद्या से अंजनादि प्रयोग करके मनुष्य अदृश्य हो जाए) और (६५) आयामिनी (छोटी वस्तु को बड़ी बना कर दिखानेवाली विद्या). इत्यादि (इन और ऐसी ही) अनेक विद्याओं का प्रयोग वे (परमार्थ से अनभिज्ञ अन्यतीथिक या गृहस्थ अथवा स्वतीथिक द्रव्यलिंगी साधु) भोजन (अन्न) और पेय पदार्थों के लिए, वस्त्र के लिए, आवास-स्थान के लिए, शय्या की प्राप्ति के लिए तथा अन्य नाना प्रकार के काम-भोगों की (सामग्री की) प्राप्ति के लिए करते हैं । वे इन (स्व-परहित के या सदनुष्ठान के) प्रतिकूल वक्र विद्याओं का सेवन करते हैं । वस्तुतः वे विप्रतिपन्न (मिथ्यादृष्टि से युक्त विपरीत बुद्धि वाले) एवं (भाषार्य तथा क्षेत्रार्य होते हुए भी अनार्यकर्म करने के कारण) अनार्य ही हैं।
वे (इन मोक्षमार्ग-विघातक विद्याओं का अध्ययन और प्रयोग करके) मृत्यु का समय आने पर मर कर आसुरिक किल्विषिक स्थान में उत्पन्न होते हैं। वहाँ से आयु पूर्ण होते ही देह छूटने पर वे पुनः पुनः ऐसी योनियों में जाते हैं जहाँ वे बकरे की तरह मूक, या जन्म से अंधे, या जन्म से ही गूगे होते हैं।
७०६.-से एगतिलो प्रायहेउं वा णायहेउं वा अगारहेउं वा परिवारहेउं वा नायगं वा सहवासियं वा णिस्साए अदुवा अणुगामिए १, अदुवा उवचरए २, अदुवा पाडिपहिए ३, अदुवा संधिच्छेदए ४, अदुवा गंठिच्छदेए ५, अदुवा उरभिए ६, अदुवा सोवरिए ७, अदुवा वागुरिए ८, अदुवा साउणिए ६, अदुवा मच्छिए १०, अदुवा गोपालए ११, अदुवा गोघायए १२, अदुवा सोणइए १३, अदुवा सोवणियंतिए १४।
से एगतिमो अणुगामियभावं पंडिसंधाय तमेव अणुगमियाणुगमिय हंता छेत्ता भेत्ता लुपइत्ता विलुपइत्ता उद्दवइत्ता पाहारं पाहारेति, इति से महया पावेहि कम्मेहि अत्ताणं उवक्खाइत्ता भवति १॥