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________________ [ सूत्रकृतांगसूत्र - द्वितीय श्र ुतस्कन्ध विवेचन - नौवाँ क्रियास्थानः मानप्रत्ययिक - स्वरूप, कारण और परिणाम - प्रस्तुत सूत्र में मानप्रत्ययिक क्रियास्थान के सन्दर्भ में शास्त्रकार तीन तथ्यों को सूचित करते हैं(१) मान की उत्पत्ति के स्रोत - आठमद (२) मानक्रिया का प्रत्यक्ष रूप- दूसरों की अवज्ञा, निन्दा, घृणा, पराभव, अपमान आदि तथा दूसरे को जाति आदि से हीन और स्वयं को उत्कृष्ट समझना । ६४ ] (३) जाति आदि वश मानक्रिया का दुष्परिणाम - दुष्कर्मवश चिरकाल तक जन्म-मरण के चक्र में भ्रमण, प्रकृति प्रतिरौद्र, प्रतिमानी, चंचल और नम्रतारहित । ' दसवाँ क्रियास्थान — मित्रदोषप्रत्ययिक : स्वरूप कारण और दुष्परिणाम - ७०४ - ग्रहावरे दसमे किरियाठाणे मित्तदोसवत्तिए त्ति श्राहिज्जति, से जहाणामए केइ पुरिसे माती वा पितह वा माईह वा भगिणीहि वा भज्जाहि वा पुतेहि वा धूयाहिं वा सुहाहिं वा सद्धि संवसमाणे तेसि अन्नतरंसि अहालहुगंसि श्रवराहंसि सयमेव गरुयं दंडं वत्तेति, तंजहा - सीतोदगवियसि वा कार्य प्रोबोलित्ता भवति, उसिणोदगवियडेण वा कार्य श्रोसिचित्ता भवति, प्रगणिकाएण कार्य उड्डत्ता भवति, जोतेण वा वेत्तेण वा णेत्तेण वा तया वा कसेण वा छिवाए वा लयाए वा पासा उद्दात्ता भवति, दंडेण वा श्रट्ठीण वा मुट्ठीण वा लेलूण वा कवालेण वा कार्य प्राउट्टित्ता भवति; तहपकारे पुरिसजाते संवसमाणे दुग्मणा भवंति, पवसमाणे सुमणा भवंति, तहप्पकारे पुरिसजाते दंडपासी दंडगुरुए दंडपुरक्खडे प्रहिए इमंसि लोगंसि प्रहिते परंसि लोगंसि संजलणे कोहणे पिट्ठिमंसि यावि भवति, एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सावज्जे त्ति श्राहिज्जति, दसमे किरियाठाणे मित्तदोसवत्तिए ति श्राहिते । ७०४ - इसके बाद दसवाँ क्रियास्थान मित्र दोषप्रत्ययिक कहलाता है । जैसे - कोई ( प्रभुत्व सम्पन्न ) पुरुष माता, पिता, भाइयों, बहनों, पत्नी, कन्याओं, पुत्रों अथवा पुत्रवधुनों के साथ निवास करता हुआ, इनसे कोई छोटा-सा भी अपराध हो जाने पर स्वयं भारी दण्ड देता है, उदाहरणार्थसर्दी के दिनों में अत्यन्त ठंडे पानी में उन्हें डुबोता है; गर्मी के दिनों में उनके शरीर पर अत्यन्त गर्म (उबलता हुआ ) पानी छींटता है, प्राग से उनके शरीर को जला देता है या गर्म दाग देता है, तथा जोत्र से, बेंत से, छड़ी से, चमड़े से, लता से या चाबुक से अथवा किसी प्रकार की रस्सी से प्रहार करके उसके बगल (पार्श्वभाग ) की चमड़ी उधेड़ देता है, तथैव डंडे से, हड्डी से, मुक्के से, ढेले से ठीकरे या खप्पर से मार-मार कर उसके शरीर को ढीला (जर्जर) कर देता है । ऐसे ( प्रतिक्रोधी ) पुरुष के घर पर रहने से उसके सहवासी परिवारिकजन दुःखी रहते हैं, ऐसे पुरुष के परदेश प्रवास करने से वे सुखी रहते हैं । इस प्रकार का व्यक्ति जो (हरदम) डंडा बगल में दबाये रखता है, जरा से अपराध पर भारी दण्ड देता है, हर बात में दण्ड को आगे रखता है अथवा दण्ड को आगे रख कर बात करता है, वह इस लोक में तो अपना अहित करता ही है परलोक में भी अपना अहित करता है । वह प्रतिक्षण ईर्ष्या से जलता रहता है, बात-बात में क्रोध करता है, दूसरों की पीठ पीछे निन्दा करता है, या चुगली खाता है । १. सूत्रकृतांग शीलांकवृत्ति, पत्रांक ३११ का सारांश
SR No.003439
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages282
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_sutrakritang
File Size20 MB
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