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धायंसि वा अतेणं तेणमिति मन्त्रमाणे प्रतेणे हयपुब्वे भवइ, दिट्ठीविपरिया सियादंडे, एवं खलु तस्स तपत्तयं सावज्जेति प्राहिज्जति, पंचमे दंडसमादाणे दिट्ठीविप्परियासियादंडे ति श्राहिते ।
frयास्थान : द्वितीय अध्ययन : सूत्र ७००
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६६ε—इसके पश्चात् पाँचवाँ क्रियास्थान दृष्टिविपर्यासदण्डप्रत्ययिक कहलाता है ।
( १ ) जैसे कोई व्यक्ति अपने माता, पिता, भाइयों, बहनों, स्त्री, पुत्रों, पुत्रियों या पुत्रवधुनों के साथ निवास करता हुआ अपने उस मित्र ( हितैषीजन) को (गलतफहमी से ) शत्रु (विरोधी या हितैषी) समझ कर मार देता है, इसको दृष्टिविपर्यासदण्ड कहते हैं, क्योंकि यह दण्ड दृष्टिभ्रमवश होता है ।
(२) जैसे कोई पुरुष ग्राम, नगर, खेड, कब्बड, मण्डप, द्रोण-मुख, पत्तन, आश्रम, सन्निवेश, निगम अथवा राजधानी पर घात के समय किसी चोर से भिन्न (चोर) को चोर समझ कर मार डाले तो वह दृष्टिविपर्यासदण्ड कहलाता है ।
इस प्रकार जो पुरुष हितैषी या दण्ड्य के भ्रम से हितैषी जन या प्रदण्ड्य प्राणी को दण्ड दे बैठता है, उसे उक्त दृष्टिविपर्यास के कारण सावद्यकर्मबन्ध होता है । इसलिए दृष्टिविपर्यास दण्डप्रत्ययिक नामक पंचम क्रियास्थान बताया गया है ।
विवेचन – पंचम क्रियास्थान दृष्टिविपर्यासदण्ड- प्रत्ययिक स्वरूप और विश्लेषण - प्रस्तुत सूत्र में दृष्टिविपर्यासवश होने वाले दण्डसमादान (क्रियास्थान) को दो दृष्टान्तों द्वारा समझाया गया है - ( १ ) हितैषी पारिवारिक जनों में से किसी को भ्रमवश अहितैषी (शत्रु) समझ कर दंड देना, (२) ग्राम, नगर आदि में किसी उपद्रव के समय चोर, हत्यारे आदि दण्डनीय व्यक्ति को ढूंढने के दौरान किसी दण्डनीय को भ्रम से दण्डनीय समझ कर दंड देना । १
छठा क्रियास्थान - मृषावादप्रत्ययिक : स्वरूप और विश्लेषण
७०० – ग्रहावरे छट्ट े किरियाठाणे मोसवत्तिए त्ति प्राहिज्जति । से जहानामए केइ पुरिसे श्रायहेउं वा नायहेडं वा श्रगारहेउं वा परिवारहेडं वा सयमेव मुसं वयति, श्रणेण वि मुसं वदावेति, सं वयं तं पिणं समणुजाणति, एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सावज्जे त्ति प्राहिज्जति, छट्टो किरियाठाणे मोसवत्तिए त्ति आहिते ।
७००—इसके पश्चात् छठे क्रियास्थान का वर्णन है, जो मृषाप्रत्ययिक कहलाता है । जैसे कि कोई पुरुष अपने लिए, ज्ञातिवर्ग के लिए, घर के लिए अथवा परिवार के लिए स्वयं असत्य बोलता है, दूसरे से असत्य बुलवाता है, तथा असत्य बोलते हुए अन्य व्यक्ति का अनुमोदन करता है; ऐसा करने के कारण उस व्यक्ति को असत्य प्रवृत्ति - निमित्तक पाप ( सावद्य) कर्म का बन्ध होता है । इसलिए यह छठा क्रियास्थान मृषावादप्रत्ययिक कहा गया ।
विवेचन – छठा क्रियास्थान : मृषावादप्रत्ययिक - स्वरूप - प्रस्तुत सूत्र में मृषावाद प्रत्ययिक क्रियास्थान का स्वरूप बताया गया । यह क्रियास्थान मन, वचन काय से किसी भी प्रकार का असत्याचरण करने, कराने एवं अनुमोदन से होता है ।
१. सूत्रकृतांग शीलांकवृत्ति, पत्रांक ३०९ का सारांश