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[ सूत्रकृतांगसूत्र - द्वितीय श्र तस्कन्ध
वा छिदित्ता भवइ, इति खलु से प्रन्नस्स अट्ठाए अन्न फुसति, अकस्मात् दंडे, एवं खलु तस्स तष्पत्तियं सावज्जे त्ति आहिज्जति, चउत्थे दंडसमादाणे अकस्मात् दंडवत्तिए त्ति प्राहिते ।
६९८ – इसके बाद चौथा क्रियास्थान प्रकस्माद् दण्डप्रत्ययिक कहलाता है ।
(१) जैसे कि कोई व्यक्ति नदी के तट पर अथवा द्रह (झील) पर यावत् किसी घोर दुर्गम जंगल में जा कर मृग को मारने की प्रवृत्ति करता है, मृग को मारने का संकल्प करता है, मृग का ही ध्यान रखता है मृग का वध करने के लिए चल पड़ता है; 'यह मृग है' यों जान कर किसी एक मृग को मारने के लिए वह अपने धनुष पर बाण को खींच कर चलाता है, किन्तु उस मृग को मारने का आशय होने पर भी उसका बाण लक्ष्य ( वध्यजीवमृग) को न लग कर तीतर, बटेर (बतक ), चिड़िया, लावक, कबूतर, बन्दर या कपिंजल पक्षी को लग कर उन्हें बींध डालता है । ऐसी स्थिति में वह व्यक्ति दूसरे के लिए प्रयुक्त दण्ड से दूसरे का घात करता है, वह दण्ड इच्छा न होने पर भी अकस्मात् ( सहसा ) हो जाता है इसलिए इसे अकस्माद्दण्ड ( प्रत्ययिक) क्रियास्थान कहते हैं ।
(२) जैसे कोई पुरुष शाली, व्रीहि, कोद्रव (कोदों), कंगू, परक और राल नामक धान्यों ( अनाजों) को शोधन (साफ) करता हुआ किसी तृण (घास ) को काटने के लिए शस्त्र ( हंसिया या दांती ) चलाए, और 'मैं श्यामाक, तृण और कुमुद आदि घास को काटू' ऐसा प्राशय होने पर भी ( लक्ष्य चूक जाने से ) शाली, व्रीहि, कोद्रव, कंगू, परक और राल के पौधों का ही छेदन कर बैठता है । इस प्रकार अन्य वस्तु को लक्ष्य करके किया हुआ दण्ड (प्राणिहिंसा ) अन्य को स्पर्श करता है । यह दण्ड भी घातक पुरुष का अभिप्राय न होने पर भी अचानक हो जाने के कारण अकस्माद्दण्ड कहलाता है । इस प्रकार अकस्मात ( किसी जीव को ) दण्ड देने के कारण उस घातक पुरुष को ( उसके निमित्त से) सावद्यकर्म का बन्ध होता है । अतः यह चतुर्थ क्रियास्थान अकस्माद्दण्ड प्रत्ययिक कहा गया है ।
विवेचन – चतुर्थ क्रियास्थान : कस्माद्दण्डप्रत्ययिक – स्वरूप और विश्लेषण - प्रस्तुत सूत्र में शास्त्रकार ने चतुर्थ क्रियास्थान के रूप में अकस्माद्दण्डप्रत्ययिक क्रियास्थान क्या है, वह कैसे-कैसे हो जाता है, इसे दो दृष्टान्तों द्वारा समझाया है - ( १ ) किसी मृग को मारने के अभिप्राय से चलाये गये शस्त्र से अन्य किसी प्राणी ( तीतर आदि) का घात हो जाने पर, (२) किसी घास को काटने के अभिप्राय से चलाये गए औजार से किसी पौधे के कट जाने पर ।'
पंचम क्रियास्थानः दृष्टि विपर्यासदण्डप्रत्ययिक : स्वरूप और विश्लेषण -
६εε- (१) श्रहावरे पंचमे दंडसमादाणे दिट्ठीविप्परियासियादंडे ति श्राहिज्जति । जहाणारिमा वा पिईहि वा भातीहि वा भगिणीहि वा भज्जाहिं वा पुत्तह वा धूताहिं वा हावा सद्धि संवसमाणे मित्तं अमित्तमिति मन्नमाणे मित्ते हयपुव्वे भवति विट्ठीविपरियासिया दंडे |
(२) से जहा वा केइ पुरिसे गामघायंसि वा नगरघायंसि वा खेड० कब्बड० मडंबधातंसि वा दो मुहघायंसि वा पट्टणघायंसि वा श्रासमघातंसि वा सन्निवेसघायंसि वा निगमघायंसि वा रायहाणि
१. सूत्रकृतांगसूत्र शीलांकवृत्ति, पत्रांक ३०९ का सारांश