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________________ पौण्डरीक : प्रथम अध्ययन : सूत्र ६७०, ६७१, ६७२ ] [३७ वेदना पा रहा हूँ, या अतिसंतप्त हूँ । अतः तुम सब मुझे इस अनिष्ट, अकान्त, अप्रिय, अशुभ, अमनोज्ञ, अवमान्य, दुःखरूप या असुखरूप मेरे किसी एक दुःख से या रोगातंक से मुझे मुक्त करा दो । तो वे (धनधान्यादि कामभोग) पदार्थ उक्त प्रार्थना सुन कर दुःखादि से मुक्त करा दें, ऐसा कभी नहीं होता। ६७०-इह खलु काममोगा णो ताणाए वा सरणाए वा, पुरिसे वा एगता पुन्वि कामभोगे विप्पजहति, कामभोगा वा एगता पुग्वि पुरिसं विप्पजहंति, अन्ने खलु कामभोगा अन्नो अहमंसि, से किमंग पुण वयं अन्नमन्नेहि कामभोगेहि मुच्छामो ? इति संखाए णं वयं कामभोगे विप्पजहिस्सामो। ६७०–इस संसार में वास्तव में, (अत्यन्त परिचित वे धन-धान्यादि परिग्रह विशेष तथा शब्दादि) काम-भोग दुःख से पीड़ित उस व्यक्ति की रक्षा करने या शरण देने में समर्थ नहीं होते । इन काम-भोगों का उपभोक्ता किसी समय तो (दुःसाध्यव्याधि, जराजीर्णता, या अन्य शासनादि का उपद्रव या मृत्युकाल आने पर) पहले से ही स्वयं इन काम-भोग पदार्थों को (बरतना) छोड़ देता है, अथवा किसी समय (द्रव्यादि के अभाव में) (विषयोन्मुख) पुरुष को काम-भोग (ये कामभोग्य साधन) पहले ही छोड़ (कर चल) देते हैं। इसलिए ये काम-भोग मेरे से भिन्न हैं, मैं इनसे भिन्न हूँ। फिर हम क्यों अपने से भिन्न इन काम-भोगों (धन धान्यादि तथा ज्ञातिजनादि परिग्रह-विशेष तथा शब्दादि कामभोग्य पदार्थों) में मूच्छित-आसक्त हों। इस प्रकार इन सबका ऐसा स्वरूप जानकर (अब) हम इन कामभोगों का परित्याग कर देंगे। ६७१-से मेहावी जाणेज्जा बाहिरंगमेतं, इणमेव उवणीततरागं, तं जहा--माता मे, पिता मे, भाया मे, भज्जा मे, भगिणी में, पुत्ता मे, धूता मे, नत्ता मे, सुण्हा मे, पेसा मे, सुही मे, सयण-संगंथसंथुता मे, एते खलु मे णायो, अहमवि एतेसि । ६७१–(इस प्रकार वह विवेकशील) बुद्धिमान् साधक (निश्चितरूप से) जान ले, ये सब काम-भोगादिपदार्थ बहिरंग-बाह्य हैं, मेरी आत्मा से भिन्न (परभाव) हैं। (सांसारिक दृष्टि वाले मानते हैं कि) इनसे तो मेरे निकटतर ये ज्ञातिजन (स्वजन) हैं जैसे कि (वह कहता है-) "यह मेरी माता है, मेरा पिता है, मेरा भाई है, मेरी बहन है, मेरी पत्नी है, मेरे पुत्र हैं, मेरी पुत्री है, ये मेरे दास (नौकर-चाकर) हैं, यह मेरा नाती है, मेरी पुत्र-वधू है, मेरा मित्र है, ये मेरे पहले और पीछे के स्वजन एवं परिचित सम्बन्धी हैं । ये मेरे ज्ञातिजन हैं, और मैं भी इनका आत्मीय जन हूँ।" ६७२-से मेहावी पुवामेव अप्पणा एवं समभिजाणेज्जा-इह खलु मम अण्णतरे दुक्खे रोगातंके समुप्पज्जेज्जा अणिठे जाव दुक्खे नो सुहे, से हंता भयंतारो गायत्रो इमं ममऽण्णतरं दुक्खं रोगायक परिमादियध' अणिठें जाव नो सुहं, ना हर दुक्खामि वा जाव परितप्पामि वा, इमातो में १. तुलना-'न तस्स दुक्खं बिभयंति नाइओ, न मित्तवग्गा न सुया न बंधवा । एक्को सयं पच्चणु होइ दुक्खं, कत्तारमेवं अणजाइ कम्मं ॥ -उत्तराध्ययन, अ. १३ गा. २३ २. पाठान्तर है-ताऽहं', 'माऽहं' । ताऽहं होने पर व्याख्या में थोड़ा परिवर्तन हो जाता है।
SR No.003439
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages282
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_sutrakritang
File Size20 MB
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