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________________ ३६ ] [ सूत्रकृतांगसूत्र - द्वितीय श्रुतस्कन्ध ( प्रव्रजित होने) के लिए समुद्यत होते हैं, अथवा कई अविद्यमान ज्ञातिजन, अज्ञातिजन एवं उपकरण का त्याग करके भिक्षावृत्ति धारण करने के लिए समुद्यत होते हैं । ६६८ - जे ते सतो वा श्रसतो वा णायश्रो य उवकरणं च विप्पजहाय भिक्खायरियाए समुट्ठिता पुव्वामेव तेहि णतं भवति, तं जहा - इह खलु पुरिसे श्रण्णमण्णं ममट्ठाए एवं विप्पडिवेदेति, तं जहाखेत्तं मे वत्थु मे, हिरण्णं मे, सुवण्णं मे, धणं मे, धष्णं मे, कंसं मे, दूसं मे, विपुल धण-कणग - रयणमणि- मोत्तिय संख - सिल प्पवाल-रत्त रयण-संतसार-सावतेयं मे, सद्दा मे, ख्वा मे, गंधा मे, रसा में, फासा में, एते खलु मे कामभोगा, श्रहमवि एतेसि । ६६८ - जो विद्यमान अथवा अविद्यमान ज्ञातिजन, प्रज्ञातिजन एवं उपकरण का त्याग करके भिक्षाचर्या (साधुदीक्षा) के लिए समुत्थित होते हैं, इन दोनों प्रकार के ही साधकों को पहले से ही यह ज्ञात होता है कि इस लोक में पुरुषगण अपने से भिन्न वस्तुओं ( पर - पदार्थों) को उद्देश्य करके झूठमूठ ही ऐसा मानते हैं कि ये मेरी हैं, मेरे उपभोग में आएँगी, जैसे कि - यह खेत (यां जमीन ) मेरा है, यह मकान मेरा है, यह चाँदी मेरी है, यह सोना मेरा है, यह धन मेरा है, धान्य मेरा है, यह कांसे के बर्तन मेरे हैं, यह बहुमूल्य वस्त्र या लोह आदि धातु मेरा है, यह प्रचुर धन (गाय, भैंस आदि पशु ) यह बहुत-सा कनक, ये रत्न, मणि, मोती, शंखशिला, प्रवाल (मूंगा), रक्तरत्न (लाल), पद्मराग श्रादि उत्तमोत्तम मणियाँ और पैत्रिक नकद धन, मेरे हैं, ये कर्णप्रिय शब्द करने वाले वीणा, वेणु आदि वाद्य-साधन मेरे हैं, ये सुन्दर और रूपवान् पदार्थ मेरे हैं, ये इत्र, तेल आदि सुगन्धित पदार्थ मेरे हैं, ये उत्तमोत्तम स्वादिष्ट एवं सरस खाद्य पदार्थ मेरे हैं, ये कोमल-कोमल स्पर्श वाले गद्द े, तोशक आदि पदार्थ मेरे हैं । ये पूर्वोक्त पदार्थ समूह मेरे कामभोग के साधन हैं, मैं इनका योगक्षेम ( प्राप्त को प्राप्त करने और प्राप्त की रक्षा) करने वाला हूँ, अथवा उपभोग करने में समर्थ हूँ ।" ६६ - से मेहावी पुण्वामेव प्रपणा एवं समभिजाणेज्जा, तं जहा - इह खलु मम श्रण्णयरे दुक्खे रोगायंके समुपज्जेज्जा अणिट्ठे प्रकंते श्रप्पिए असुभे श्रमणुण्णे श्रमणामे दुक्खे णो सुहे, से हंता भयंतारो कामभोगा ! इमं मम श्रण्णतरं दुक्खं रोगायंकं परियाइयह श्रणिट्ठे श्रकंतं श्रप्पियं श्रसुभं अमणुष्णं श्रमणामं दुक्खं णो सुहं, ताहं दुक्खामि वा सोयामि वा जूरामि वा तिप्पामि वा पिड्डामि वा परितप्पामि वा इमाश्रो मे प्रण्णतरातो दुक्खातो रोगायंकातो पडिमोयह श्रणिद्वातो अकंतातो पिया हाम्रो श्रमणुन्नाश्रो श्रमणामानों दुक्खाश्रो णो सुहातो । एवामेव नो लद्धपुव्वं भवति । ६६ - वह ( प्रव्रजित अथवा प्रव्रज्या लेने का इच्छुक ) मेधावी (इनका उपभोग करने से पूर्व ही ) यह भलीभाँति जान ले कि "इस संसार श्रातंक उत्पन्न होता है, जो कि मुझे इष्ट नहीं है, कान्त ( मनोहर ) नहीं है, साधक स्वयं पहले से ही 'जब मुझे कोई रोग या प्रिय नहीं है, अशुभ है, मनोज्ञ है, अधिक पीड़ाकारी (मनोव्यथा पैदा करने वाला) है, दुःखरूप है, सुखरूप नहीं है, (तब यदि मैं प्रार्थना करूं कि ) हे भय का अन्त करने वाले मेरे धनधान्य आदि कामभोगो ! मेरे इस अनिष्ट, कान्त, अप्रिय, अशुभ, अमनोज्ञ, अतीव दुःखद, दुःखरूप या असुखरूप रोग, प्रातंक आदि को तुम बांट कर ले लो; क्योंकि मैं इस पीड़ा, रोग या आतंक से बहुत दुःखी हो रहा हूँ, मैं चिन्ता या शोक से व्याकुल हूँ, इनके कारण मैं बहुत चिन्ताग्रस्त हूँ, मैं अत्यन्त पीड़ित हो रहा हूँ, मैं बहुत ही
SR No.003439
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages282
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_sutrakritang
File Size20 MB
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