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________________ पौण्डरीक : प्रथम अध्ययन : सूत्र ६५० ] [२१ (चौड़ा) है, यह काला है अथवा नीला है, यह लाल है या पोला है या यह श्वेत है; यह सुगन्धित है या दुर्गन्धित है, यह तिक्त (तीखा) है या कड़वा है अथवा कसैला, खट्टा या मीठा है; अथवा यह कर्कश है या कोमल है अथवा भारी (गुरु) है या हलका (लघु) अथवा शीतल है या उष्ण है, स्निग्ध है अथवा रूक्ष है। इसलिए जो लोग जीव को शरीर से भिन्न नहीं मानते, उनका मत ही युक्तिसंगत है। ६५०–जेसि तं सुयक्खायं भवति 'अन्नो जीवो अन्नं सरीरं', तम्हा ते णो एवं उवलभंति-- [१] से जहानामए केइ पुरिसे कोसीतो' असि अभिनिव्वट्टित्ताणं उवदंसेज्जा-अयमाउसो ! असी, अयं कोसीए, एवमेव णत्थि केइ अभिनिव्वट्टित्ताणं उवदंसेति-अयमाउसो! प्राता, अयं सरीरे। [२] से जहाणामए केइ पुरिसे मुंजारो इसीयं अभिनिव्वट्टित्ताणं उवदंसेज्जा-अयमाउसो ! मुजो, अयं इसीया, एवामेव नत्थि केति उवदंसेत्तारो अयमाउसो ! आता इदं सरीरे । [३] से जहाणाभए केति पुरिसे मंसानो ट्ठि अभिनिव्वट्टित्ताणं उवदंसेज्जा-अयमाउसो ! मंसे, अयं अट्ठी, एवामेव नत्थि केति उवदंसेत्तारो-अयमाउसो! आया, इदं सरीरं। [४] से जहानामए केति पुरिसे करतलामो प्रामलकं अभिनिव्वट्टित्ताणं उवदसेज्जाअयमाउसो! करतले, अयं प्रामलए, एवामेव णस्थि केति उवदंसेत्तारो-अयमाउसो! पाया, इदं सरीरं। [५] से जहानामए केइ पुरिसे दहीनो णवणीयं अभिनिव्वट्टित्ताणं उवदंसेज्जाअयमाउसो ! नवनीतं, अयं दही, एवामेव नत्थि केति उवदंसेत्तारो जाव सरीरं । [६] से जहानामए केति पुरिसे तिलहितो तेल्लं अभिनिव्वदे॒त्ताणं उवदंसेज्जाअयमाउसो ! तेल्ले, अयं पिण्णाए, एवामेव जाव सरीरं। [७] से जहानामए केइ पुरिसे उक्खूतो खोतरसं अभिनिव्वट्टित्ताणं उवदंसेज्जाअयमाउसो ! खोतरसे, अयं चोए, एवमेव जाव सरीरं। [८] से जहानामए केइ पुरिसे प्ररणीतो अग्गि अभिनिव्वदे॒त्ताणं उवदंसेज्जाप्रयमाउसो ! अरणी, अयं प्रग्गी, एवामेव जाव सरीरं । एवं असतो असंविज्जमाणे । जेसि तं सुयक्खातं भवति तं जहा-'अन्नो जीवो अन्नं सरीरं' तम्हा तं मिच्छा। ६५०-जिन लोगों का यह कथन है कि जीव अन्य है, और शरीर अन्य है, वे इस प्रकार से जीव को उपलब्ध (प्राप्त) नहीं करा पाते-(१) जैसे-कि कोई व्यक्ति म्यान से तलवार को बाहर १. तुलना-"सेय्यथापि, महाराज ! पुरिसो मुञ्जम्हा ईसिका पताहेय्य । तस्स एवमस्स अयं मुंजो, अयं ईसिका .........."तस्स एवमस्स-अयं असि अयं कोसि ........"मनोमयं काय अभिनिम्मनाय चित्तं अभिनीहरति अभिनिन्नामेति ।" -सूत्तपिटक दीघनिकाय (पालि) भा. १सामञफलसुत्त पृ. ६८
SR No.003439
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages282
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_sutrakritang
File Size20 MB
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