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________________ २० ] [ सूत्रकृतांगसूत्र - द्वितीय श्र तस्कन्ध ( ४ ) इनमें से किसी धर्मश्रद्धालु को अन्य तीर्थिकों द्वारा स्वधर्मानुसार बनाने के उपक्रम का वर्णन । प्रथमपुरुष : तज्जीव- तच्छरीरवादी का वर्णन ६४८ – तं जहा - उड्ढं पादतला' हे केसग्गमत्थया तिरियं तयपरियंते जीवे, एस श्रापज्जवे कसिणे, एस जीवे जीवति, एस मए णो जीवति, सरीरे चरमाणे चरती, विणट्टम्मि य णो चरति, तंतं जीवितं भवति, श्रादहणाए परोह णिज्जति, प्रगणिभ्रामिते सरीरे कवोतवण्णाणि श्रट्ठीणि भवति, संदीपंचमा पुरिसा गामं पच्चागच्छति । एवं श्रसतो प्रसंविज्जमाणे । ६४८—वह धर्म इस प्रकार है- पादतल (पैरों के तलवे) से ऊपर और मस्तक के केशों के अग्रभाग से नीचे तक तथा तिरछा - चमड़ी तक जो शरीर है, वही जीव है । यह शरीर ही जीव का समस्त पर्याय ( अवस्था विशेष अथवा पर्यायवाची शब्द ) है । (क्योंकि) इस शरीर के जीने तक ही यह जीव जीता रहता है, शरीर के मर जाने पर यह नहीं जीता, शरीर के स्थित ( टिके ) रहने तक ही यह जीव स्थित रहता है और शरीर के नष्ट हो जाने पर यह नष्ट हो जाता है । इसलिए जब तक शरीर है, तभी तक यह जीवन (जीव ) है । शरीर जब मर जाता है तब दूसरे लोग उसे जलाने के लिए ले जाते हैं, आग से शरीर के जल जाने पर हड्डियां कपोत वर्ण (कबूतरी रंग ) की हो जाती हैं । इसके पश्चात् मृत व्यक्ति को श्मशान भूमि में पहुंचाने वाले जघन्य (कम से कम ) चार पुरुष मृत शरीर को ढोने वाली मंचिका (अर्थी) को ले कर अपने गांव में लौट आते हैं । ऐसी स्थिति में यह स्पष्ट हो जाता है कि शरीर से भिन्न कोई जीव नामक पदार्थ नहीं है, क्योंकि वह शरीर से भिन्न प्रतीत नहीं होता । ( अतः जो लोग शरीर से भिन्न जीव का अस्तित्व नहीं मानते, उनका यह पूर्वोक्त सिद्धान्त ही युक्ति युक्त समझना चाहिए ।) ६४६ - जेसि तं सुक्खायं भवति - 'अन्नो भवति जीवो अन्नं सरीरं' तम्हा ते एवं नो विप्पडिवेदेति - प्रथमाउसो ! श्राता दीहे ति वा हस्से ति वा परिमंडले ति वा वट्टे ति वा तंसे तिवा चउरंसेति वा छलंसेति वा प्रट्ठसे ति वा प्रायते ति वा किण्हे ति वा णीले ति वा लोहिते ति वा हालिदेति वा सुक्कले ति वा सुब्भिगंधे ति वा दुब्भिगंधे ति वा तित्ते ति वा कडु वा अंबिले ति वा महुरे ति वा कक्खडे ति वा मउए ति वा गरुए ति वा लहुए उसिणे ति वा गिद्ध ति वा लुषखे ति वा । एवमसतो प्रसंविज्जमाणे । वा वा सिते ति वा ६४६ - जो लोग युक्तिपूर्वक यह प्रतिपादन करते हैं कि जीव पृथक् है और शरीर पृथक् है, वे इस प्रकार ( जीव और शरीर को ) पृथक् पृथक् करके नहीं बता सकते कि - यह श्रात्मा दीर्घ (लम्बा) है, यह ह्रस्व ( छोटा या ठिगना) है, यह चन्द्रमा के समान परिमण्डलाकार है, अथवा गेंद की तरह गोल है, यह त्रिकोण है, या चतुष्कोण है, या यह षट्कोण या अष्टकोण है, यह प्रायत १. तुलना - " उड्ढं पायतला अहे केसग्गमत्थका एस आता पज्जवे तिबेमि—उड़ढं पायतला एस मडे णो ( जीवति) एतं तं अफले कल्लापाणवए । तम्हा एवं सम्म (जीवितं भवति) ।" - इसिभा सियाई १९, उक्कलज्भयण पृ. ३९
SR No.003439
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages282
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_sutrakritang
File Size20 MB
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