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________________ पौण्डरीक : प्रथम अध्ययन : सूत्र ६४२ ] [११ तं महं एगं पउमवरपुंडरीयं अणुपुवट्टियं जाव पडिरूवं, ते तत्थ दोण्णि पुरिसज्जाते पासति पहीणे तीरं, अप्पत्ते पउमवरपोंडरीयं, जो हवाए णो पाराए, जाव सेयंसि निसण्णे । तते णं से पुरिसे एवं वदासी-अहो णं इमे पुरिसा अखेत्तन्ना अकुसला अपंडिया अवियत्ता अमेहावी बाला णो मग्गत्था णो मग्गविऊ णो मग्गस्स गतिपरक्कमण्ण, जंणं एते पुरिसा एवं मण्णे 'अम्हेतं पउमवरपोंडरीयं उणिक्खेस्सामो,' णो य खलु एयं पउमवरपोंडरीयं एवं उण्णिक्खेतव्वं जहा णं एए पुरिसा मण्णे। अहमंसि पुरिसे खेतन्ने कुसले पंडिते वियत्ते मेहावी अबाले मग्गथे मग्गविऊ मग्गस्स गतिपरक्कमण्ण, अहमेयं पउमवरपोंडरीयं उण्णिक्खस्सामि इति वच्चा से पुरिसे अभिक्कमे तं पुक्खरणि, जाव जावं च णं अभिक्कमे ताव तावं च णं महंते उदए महंते सेए जाव अंतरा सेयंसि निसण्णे तच्चे पुरिसजाए। ६४१-इसके पश्चात् तीसरे पुरुष का वर्णन किया जाता है। दूसरे पुरुष के पश्चात् तीसरा पुरुष पश्चिम दिशा से उस पुष्करिणी के पास आ कर उस के किनारे खड़ा हो कर उस एक महान् श्रेष्ठ पुण्डरीक कमल को देखता है, जो विशेष रचना से युक्त यावत् पूर्वोक्त विशेषणों से युक्त अत्यन्त मनोहर है। वह वहां (उस पुष्करिणी में) उन दोनों पुरुषों को भी देखता है, जो तीर से भ्रष्ट हो चके और उस उत्तम श्वेतकमल को भी नहीं पा सके, तथा जो न इस पार के रहे और न उस पार के रहे, अपितु पुष्करिणी के अधबीच में अगाध कीचड़ में ही फंस कर दुःखी हो गए थे। इसके पश्चात् उस तीसरे पुरुष ने उन दोनों पुरुषों के लिए इस प्रकार कहा-"अहो ! ये दोनों व्यक्ति खेदज्ञ या क्षेत्रज्ञ नहीं हैं, कुशल भी नहीं है, न पण्डित हैं, न ही प्रौढ़-परिपक्वबुद्धिवाले हैं, न ये बुद्धिमान हैं, ये अभी नादान बालक-से हैं, ये साधु पुरुषों द्वारा आचरित मार्ग पर स्थित नहीं हैं, तथा जिस मार्ग पर चल कर जीव अभीष्ट को सिद्ध करता है, उसे ये नहीं जानते । इसी कारण ये दोनों पुरुष ऐसा मानते थे कि हम इस उत्तम श्वेतकमल को उखाड़ कर बाहर निकाल लाएंगे, परन्तु इस उत्तम श्वेतकमल को इस प्रकार उखाड़ लाना सरल नहीं, जितना कि ये दोनों पुरुष मानते हैं।" "अलबत्ता मैं खेदज्ञ (क्षेत्रज्ञ), कुशल, पण्डित, परिपक्वबुद्धिसम्पन्न, मेधावी, युवक, मार्गवेत्ता, मार्ग की गतिविधि और पराक्रम का ज्ञाता हूँ। मैं इस उत्तम श्वेतकमल को बाहर निकाल कर ही रहूँगा, मैं यह संकल्प करके ही यहाँ आया हूँ।" यों कह कर उस तीसरे पुरुष ने पुष्करिणी में प्रवेश किया और ज्यों-ज्यों उसने आगे कदम बढ़ाए, त्यों-त्यों उसे बहुत अधिक पानी और अधिकाधिक कीचड़ का सामना करना पड़ा । अतः वह तीसरा व्यक्ति भी वहीं कीचड़ में फंसकर रह गया और अत्यन्त दु:खी हो गया। वह न इस पार का रहा और न उस पार का। यह तीसरे पुरुष की कथा है। ६४२-अहावरे चउत्थे पुरिसजाए। अह पुरिसे उत्तरातो दिसातो पागम्म तं पुक्खरणि तीसे पुक्खरणीए तीरे ठिच्चा पासति एगं
SR No.003439
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages282
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_sutrakritang
File Size20 MB
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