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. [ सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध जाव पउमवरपोंडरीयं उन्निक्स्सामि,' णो य खलु एतं पउमवरपोंडरीयं एवं उन्निक्खेयव्वं जहाणं एस पुरिसे मन्ने।
अहमंसि पुरिसे खेयण्णे कुसले पंडिए वियत्ते मेहावी अबाले मग्गत्थे मग्गविऊ मग्गस्स गतिपरक्कमण्णू, अहमेयं पउमवरपोंडरीयं उन्निक्खिस्सामि त्ति कटु इति वच्चा से पुरिसे अभिक्कमे तं पुक्खरणि, जाव जावं च णं अभिक्कमे ताव तावं च णं महंते उदए महंते सेए, पहीणे तीरं, अप्पत्ते पउमवरपोंडरीयं, णो हव्वाए णो पाराए, अंतरा सेयंसि विसण्णे दोच्चे पुरिसजाते ।
६४०- अब दूसरे पुरुष का वृत्तान्त बताया जाता है।
(पहले पुरुष के कीचड़ में फंस जाने के बाद) दूसरा पुरुष दक्षिण दिशा से उस पुष्करिणी के पास आ कर उस (पुष्करिणी) के दक्षिण किनारे पर ठहर कर उस श्रेष्ठ पुण्डरीक को देखता है, जो विशिष्ट क्रमबद्ध रचना से युक्त है, यावत् (पूर्वोक्त विशेषणों से युक्त) अत्यन्त सुन्दर है । वहाँ (खड़ाखड़ा) वह उस (एक) पुरुष को देखता है, जो किनारे से बहुत दूर हट चुका है, और उस प्रधान श्वेत
मल तक पहुंच नहीं पाया है; जो न इधर का रहा है, न उधर का, बल्कि उस पुष्करिणी के बीच में ही कीचड़ में फंस गया है।
तदनन्तर दक्षिण दिशा से आये हुए इस दूसरे पुरुष ने उस पहले पुरुष के विषय में कहा कि- "अहो ! यह पुरुष खेदज्ञ (मार्गजनित खेद-परिश्रम को जानता) नहीं है, (अथवा इस क्षेत्र का अनुभवी नहीं है), यह अकुशल है, पण्डित नहीं है, परिपक्व बुद्धिवाला तथा चतुर नहीं है, यह अभी बाल-अज्ञानी है । यह सत्पुरुषों के मार्ग में स्थित नहीं है, न ही यह व्यक्ति मार्गवेत्ता है। जिस मार्ग से चल कर मनुष्य अपने अभीष्ट उद्देश्य को प्राप्त करता है, उस मार्ग की गतिविधि तथा पराक्रम को यह नहीं जानता । जैसा कि इस व्यक्ति ने यह समझा था कि मैं बड़ा खेदज्ञ या क्षेत्रज्ञ हूँ, कुशल हूँ, यावत् पूर्वोक्त विशेषताओं से युक्त हूँ, मैं इस पुण्डरीक को उखाड़ कर ले आऊंगा, किन्तु यह पुण्डरीक इस तरह उखाड़ कर नहीं लाया जा सकता जैसा कि यह व्यक्ति समझ रहा है।"
_ "मैं खेदज्ञ (या क्षेत्रज्ञ)पुरुष हूँ, मैं इस कार्य में कुशल हूँ, हिताहित विज्ञ हूँ, परिपक्वबुद्धिसम्पन्नप्रौढ है, तथा मेधावी हूँ, मैं नादान बच्चा नहीं हैं, पूर्वज सज्जनों द्वारा प्राचरित मार्ग पर उस पथ का ज्ञाता हूँ, उस मार्ग की गतिविधि और पराक्रम को जानता है । मैं अवश्य ही इस उत्तम श्वेतकमल को उखाड़ कर बाहर निकाल लाऊंगा, (मैं ऐसी प्रतिज्ञा करके ही यहाँ आया हूँ) यों कह कर वह द्वितीय पुरुष उस पुष्करिणी में उतर गया । ज्यों ज्यों वह आगे बढ़ता गया, त्यों-त्यों उसे अधिकाधिक जल और अधिकाधिक कीचड़ मिलता गया। इस तरह वह भी किनारे से दूर हट गया और उस प्रधान पुण्डरीक कमल को भी प्राप्त न कर सका । यों वह न इस पार का रहा और न उस पार का रहा । वह पुष्करिणी के बीच में ही कीचड़ में फंस कर रह गया और दुःखी हो गया। यह दूसरे पुरुष का वृत्तान्त है।
६४१-प्रहावरे तच्चे पुरिसजाते। , अह पुरिसे पच्चत्थिमानो दिसाम्रो प्रागम्म तं पुक्खरणि तीसे पुक्खरिणीए तीरे ठिच्चा पासति