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________________ नालन्दकीय : सप्तम अध्ययन : सूत्र ८५४ ] [ १९७ में से कई श्रमण चार, पाँच, छह या दस वर्ष तक थोड़े या बहुत-से देशों में विचरण करके क्या पुनः गृहवास कर (गृहस्थ बन) सकते हैं ? निर्ग्रन्थ-"हाँ, वे पुनः गृहस्थ बन सकते हैं ।' भगवान् गौतम-"श्रमणों के घात का त्याग करने वाले उस प्रत्याख्यानी व्यक्ति का प्रत्याख्यान क्या उस गृहस्थ बने हुए (भूतपूर्व श्रमण) व्यक्ति का वध करने से भंग हो जाता है ? निर्ग्रन्थ--"नहीं, यह बात सम्भव (शक्य) नहीं है, (अर्थात्-साधुत्व को छोड़ कर पुनः गृहवास स्वीकार करने वाले भूतपूर्व श्रमण का वध करने से पूर्वोक्त प्रत्याख्यानी का प्रत्याख्यान भंग नहीं होता)।" श्री गौतमस्वामी-इसी तरह श्रमणोपासक ने त्रस प्राणियों को दण्ड देने (वध करने) का त्याग किया है, स्थावर प्राणियों को दण्ड देने का त्याग नहीं किया। इसलिए स्थावरकाय में वर्तमान (स्थावरकाय को प्राप्त भूतपूर्व त्रस) का वध करने से भी उसका प्रत्याख्यान भंग नहीं होता। निर्ग्रन्थो ! इसे इसी तरह समझो, इसे इसी तरह समझना चाहिए। ८५४-भगवं च णं उदाहु नियंठा खलु पुच्छियव्वा-पाउसंतो नियंठा! इह खलु गाहावती वा गाहावतिपुत्तो वा तहप्पगारेहि कुलेहिं प्रागम्म धम्मसवणवत्तियं उवसंकमज्जा?, हंता, उवसंकमज्जा। तेसि च णं तहप्पगाराणं धम्मे प्राइक्खियब्वे ?, हंता प्राइक्खियम्वे, किं ते तहप्पगारं धम्म सोच्चा निसम्म एवं वदेज्जा-'इणमेव निग्गंथं पावयणं सच्चं अणुत्तरं केवलियं पडिपुण्णं णेयाउयं [सं]-सुद्ध सल्लकत्तणं सिद्धिमग्गं मुत्तिमग्गं निज्जाणमग्गं निव्वाणमग्गं अवितहमविसंधि सव्वदुक्खप्पहीणमग्गं, एत्थं ठिया जीवा सिझंति बुझंति मुच्चंति परिणिव्वायंति सव्वदुक्खाणं अंतं करेंति, तमाणाए तहा गच्छामो तहा चिट्ठामो तहा निसीयामो तहा तुयट्टामो तहा भुजामो तहा भासामो तहऽभुटामो तहा उदाए उट्रे इत्ता पाणाणं जाव सत्ताणं संजमेणं संजमामो त्ति वदेज्जा ? हंता वदेज्जा कि ते तहप्पगारा कप्पंति पव्वावित्तए ? हंता कप्पंति । किं ते तहप्पगारा कप्पंति मुंडावेत्तए ? हंता कप्पंति । किं ते तहप्पगारा कप्पंति सिक्खावेत्तए ? हंता कप्पंति । किं ते तहप्पगारा कप्पंति उवट्ठावेत्तए ? हंता कप्पंति । किं ते तहप्पगारा कप्पंति सिक्खावेत्तए ? हंता कप्पंति । किं ते तहप्पगारा कप्पंति उवट्ठावेत्तए ? हंता कप्पंति । तेसिं च णं तहप्पगाराणं सवपाणेहि जाव सव्वसत्तेहि दंडे णिक्खित्ते ? हंता णिक्खित्ते । से णं एतारूवेणं विहारेणं विहरमाणा जाव वासाइं चउप्पंचमाई छद्दसमाणि वा अप्पतरो वा भुज्जतरो वा देसं दूइज्जित्ता अगारं वएज्जा ? हंता वएज्जा । तस्स णं सव्वपाणेहिं जाव सव्वसत्तेहिं दंडे णिक्खित्ते ? ति । सेज्जेसे जीवे जस्स परेणं सव्वपाहिं जाव सव्वसहि दंडे णो णिक्खित्ते, सेज्जेसे जीवे जस्स पारेणं सव्वपाणेहिं जाव सव्वसत्तेहि दंडे णिक्खित्ते, सेज्जेसे जीवे जस्स इदाणि सव्वपाहिं जाव सव्वसत्तेहिं दंडे णो णिक्खित्ते भवति, परेणं अस्संजए १. तुलना-इणमेव निग्गंथं पावयणं........"सव्वदुक्खाणमंतं करेंति ।" -आवश्यक चूणि-प्रतिक्रमणाध्ययन-पृ० २४९
SR No.003439
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages282
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_sutrakritang
File Size20 MB
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