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[सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध प्रथम सूत्र में उदक के द्वारा प्रस्तुत आक्षेपात्मक शंका प्रस्तुत की गई है, द्वितीय सूत्र में श्री गौतम स्वामी का स्पष्ट एवं युक्तियुक्त समाधान अंकित है।
प्रत्याख्यान की निविषयता एवं निष्फलता का प्राक्षेप-उदक निर्ग्रन्थ द्वारा किये गये आक्षेप का आशय यह है कि श्रावक के प्रत्याख्यान है त्रस जीवों के हनन का, परन्तु जब सभी त्रसजीव त्रस पर्याय को छोड़कर स्थावरपर्याय में आ जाएँगे, तब उसका पूर्वोक्त प्रत्याख्यान निविषय एवं निरर्थक हो जाएगा। जैसे सभी नगर निवासियों के वनवासी हो जाने पर नगरनिवासी को न मारने की प्रतिज्ञा निविषय एवं निष्फल हो जाती है, वैसे ही सभी त्रसों के स्थावर हो जाने पर श्रावक की त्रसघात त्याग की प्रतिज्ञा भी निरर्थक एवं निविषय हो जाएगी। ऐसी स्थिति में एक भी त्रस पर्याय का प्राणी नहीं रहेगा, जिसे न मार कर श्रावक प्रत्याख्यान को सफल कर सके ।' . श्री गौतमस्वामी द्वारा स्पष्ट समाधान-दो पहलुओं से दिया गया है-(१) ऐसा त्रिकाल में भी सम्भव नहीं है कि जगत् के सभी त्रस, स्थावर हो जाएँ, क्योंकि यह सिद्धान्त विरुद्ध है। (२) आपके मन्तव्यानुसार ऐसा मान भी लें तो जैसे सभी त्रस स्थावर हो जाते हैं, वैसे सभी स्थावर भी त्रस हो जाते हैं, इसलिए जब सभी स्थावर त्रस हो जाएँगे, तब श्रावक का त्रसवध-त्याग सर्वप्राणीवधत्याग विषयक होने से सफल एवं सविषय हो जाएगा। क्योंकि तब संसार में एकमात्र त्रसजीव ही होंगे जिनके वध का त्याग श्रावक करता है। इसलिए आपका यह (निर्विषयता रूप) आक्षेप न्याय-संगत नहीं है। निम्रन्थों के साथ श्रीगौतमस्वामी के संवाद
८५३-भगवं च णं उदाहु-नियंठा खलु पुच्छियव्वा, पाउसंतो नियंठा ! इह खलु संतेगतिया मणुस्सा भवंति, तेसिं च णं एवं वृत्तपुव्वं भवति-जे इमे मुंडा भवित्ता अगारातो प्रणगारियं पव्वइया एसि च णं आमरणंताए दंडे णिक्खित्ते, जे इमे प्रगारमावसंति एतेसि णं आमरणंताए दंडे णो णिक्खित्ते, केई च णं समणा जाव वासाइं चउपंचमाइं छहसमाई अप्पतरो वा भुज्जतरो वा देसं दूतिज्जित्ता अगारं वएज्जा ? हंता वएज्जा। तस्स णं तं गारत्थं वहमाणस्स से पच्चक्खाणे भग्गे भवति ? णेति । एवामेव समणोवासगस्स वि तसेहिं पाणेहिं दंडे णिक्खित्ते, थावरेहि पाहि दंडे नो णिक्खित्ते, तस्स णं तं थावरकायं वहेमाणस्स से पच्चक्खाणे णो भग्गे भवति, से एवमायाणह णियंठा!, सेवमायाणियव्वं ।
८५३-भगवान् गौतम (इसी तथ्य को स्पष्ट करने हेतु) कहते हैं कि मुझे निर्ग्रन्थों से पूछना है—'आयुष्मान् निर्ग्रन्थो ! इस जगत् में कई मनुष्य ऐसे होते हैं; वे इस प्रकार वचनबद्ध (प्रतिज्ञाबद्ध) होते हैं कि 'ये जो मुण्डित हो कर, गृह त्याग कर अनगार धर्म में प्रवजित हैं, इनको आमरणान्त (मरणपर्यन्त) दण्ड देने (हनन करने) का मैं त्याग करता हूँ; परन्तु जो ये लोग गृहवास करते (गृहस्थ) हैं, उनको मरणपर्यन्त दण्ड देने का त्याग मैं नहीं करता। (अब मैं पूछता हूँ कि उन प्रवजित श्रमणों
१. सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक ४१५ का सारांश २. वही, पत्रांक ४१६ का सारांश