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[ सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्रुतस्त समस्त जीव सुखी और एक के दुःख से सारे दुःखी हो जाते। प्रत्येक जीव का पृथक् पृथक् अस्ि और अजीव (धर्मास्तिकाय से लेकर पुद्गलास्तिकाय तक) का उससे भिन्न स्वतन्त्र अस्तित्व मान ही अभीष्ट है।'
(३) धर्म और अधर्म-श्रुत और चारित्र या सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र धर्म कहलाते हैं, प्रात्मा के स्वाभाविक परिणाम, स्वभाव या गण हैं. तथा इनके विपरीत मिथ्यात्व. अविरति. प्रमाद, कषाय और योग; ये भी आत्मा के ही गुण, परिणाम हैं किन्तु कर्मोपाधिजनित होने से तय मुक्ति के विरोधी होने से अधर्म कहलाते हैं। धर्म और अधर्म के कारण जीवों की विचित्रता है इसलिए इन दोनों का स्वतन्त्र अस्तित्व मानना चाहिए । उपर्युक्त कथन सत्य होते हुए भी कई दार्श निकर काल, स्वभाव, नियति या ईश्वर आदि को ही जगत् की सब विचित्रताओं का कारण मान कर धर्म, अधर्म के स्वतन्त्र अस्तित्व को मानने से इन्कार करते हैं। किन्तु काल आदि धर्म, अधर्म के साथ ही विचित्रता के कारण होते हैं, इन्हें छोड़ कर नहीं। अन्यथा एक काल में उत्पन्न हुए व्यक्तियों में विभिन्नताएँ या विचित्रताएँ घटित नहीं हो सकतीं । स्वभाव आदि की चर्चा अन्य दार्शनिक ग्रन्थ से जान लेनी चाहिए।
(४) बन्ध और मोक्ष-कर्मपुद्गलों का जीव के साथ दूध पानी की तरह सम्बद्ध होना बन्ध है, और समस्त कर्मों का क्षय होना-प्रात्मा से पथक होना मोक्ष है। बन्ध और मोक्षका अस्तित्व प्रत्यक्षादि प्रमाणों से सिद्ध हो जाता है । इन दोनों के अस्तित्व पर अश्रद्धा व्यक्ति को निरंकुश पापाचार या अनाचार में गिरा देती है। अतः आत्मकल्याणकामी को दोनों पर अश्रद्धा का त्याग कर देना चाहिए । कई दार्शनिक (सांख्यादि) आत्मा का बन्ध और मोक्ष नहीं मानते। वे कहते हैं आत्मा अमूर्त है, कर्मपुद्गल मूर्त । ऐसी स्थिति में अमूर्त आत्मा का आकाशवत् कर्मपुद्गलों के साथ बन्ध या लिप्तत्व कैसे हो सकता है ? जब अमूर्त आत्मा बद्ध नहीं हो सकता तो उसके मुक्त .(मोक्ष) होने की बात निरर्थक है, बन्ध का नाश ही तो मोक्ष है। अतः बन्ध के अभाव में मोक्ष भी सम्भव नहीं । वस्तुतः यह सिद्धान्त यथार्थ नहीं है। चेतना अमूर्त पदार्थ है, फिर भी मद्य आदि . . पदार्थों के साथ सम्बन्ध होने (सेवन) से उसमें में विकृति स्पष्टतः देखी जा सकती है। इसके रिक्त संसारी आत्मा एकान्ततः अमूर्त नहीं-मूर्त है । अतः उसका मूर्त कर्म पुद्गलों के साथ स... सुसंगत है । जब बन्ध होता है, तो एक दिन उसका अभाव-मोक्ष भी सम्भव है। फिर बन्ध .. अस्तित्व न मानने पर संसारी व्यक्ति का सम्यग्दर्शनादि साधना का पुरुषार्थ व्यर्थ हो जाएगा, अं. मोक्ष न मानने पर साध्य या अन्तिम लक्ष्य की दिशा में पुरुषार्थ नहीं होगा। इसलिए दोनों अस्तित्व मानना अनिवार्य है।
(५) पुण्य और पाप-"शुभकर्म पुद्गल पुण्य है और अशुभकर्म पुद्गल पाप ।" इन दोन का पृथक्-पृथक् स्वतंत्र अस्तित्व है । कई अन्यतीथिक कहते हैं-इस जगत् में पुण्य नामक कोई
१. सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक ३७६-३७७. २. नहि कालादिहिंतो केवलएहितो जायए किंचि ।
इह मुग्गरंधणाइ वि ता सवे समुदिया हेऊ ।। ३. "पुद्गलकर्म शुभं यत् तत् पुण्यमिति जिनशासने दष्टम् ।
यदशुभमथ तत् पापमिति भवति सर्वज्ञनिर्देशात ॥"