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अनाचारश्रत : पंचम अध्ययन : सूत्र ७८१ ]
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७८१ – कोई भी कल्याणवान् ( पुण्यात्मा) और पापी (पापात्मा) नहीं है, ऐसा नहीं समझना चाहिए अपितु कल्याणवान् ( पुण्यात्मा ) एवं पापात्मा दोनों हैं, ऐसी श्रद्धा रखनी चाहिए ।
विवेचन - नास्तिकता और श्रास्तिकता के श्राधारभूत संज्ञाप्रधान सूत्र - प्रस्तुत १७ सूत्रगाथाओं में सम्यग्दर्शनाचार विरुद्ध नास्तिकता का निषेध करके उससे सम्मत प्रास्तिकता का विधान किया गया है । आस्तिकता ही आचार है, और नास्तिकता अनाचार । इस दृष्टि से आचाराधक को निम्नलिखित विषयों सम्बन्धी नास्तिकता को त्याग कर उनके स्वतंत्र अस्तित्व को मानना, जानना और उस पर श्रद्धा करना चाहिए। जो इन पदार्थों के स्वतन्त्र अस्तित्व को नहीं मानते, वे प्राचीन युग की परिभाषा में नास्तिक, जैन धर्म की परिभाषा में मिथ्यात्वी और श्रागम की भाषा में अनाचारसेवी ( दर्शनाचार रहित ) हैं । वृत्तिकार ने स्पष्टीकरण करते हुए इस पर प्रकाश डाला है कि कौन दार्शनिक इन के अस्तित्व को मानता है कौन नहीं, साथ ही प्रत्येक के अस्तित्व को विभिन्न प्रमाणों से सिद्ध किया है ।' मूल में 'संज्ञा' शब्द है, यहाँ वह प्रसंगानुसार समझ, बुद्धि, मान्यता, श्रद्धा, संज्ञान या दृष्टि आदि के अर्थ में प्रयुक्त है । वे १५ संज्ञासूत्र इस प्रकार हैं
(१) लोक श्रौर प्रलोक - सर्वशून्यतावादी लोक और प्रलोक दोनों का अस्तित्व नहीं मानते । वे कहते हैं – स्वप्न, इन्द्रजाल और माया में प्रतीत होने वाले पदार्थों की तरह लोक ( जगत् ) और अलोक सभी मिथ्या है । जगत् के सभी प्रतीयमान दृश्य मिथ्या हैं । अवयवों द्वारा ही अवयवी प्रकाशित होता है । जगत् ( लोक या अलोक ) के अवयवों का (विशेषतः अन्तिम श्रवयव = परमाणु का इन्द्रियातीत होने से ) अस्तित्व सिद्ध न होने से जगत् रूप अवयवी सिद्ध नहीं हो सकता । परन्तु उनका यह सिद्धान्त भ्रान्तिमूलक एवं युक्ति विरुद्ध है । अतः प्रत्यक्ष दृश्यमान चतुर्दशरज्ज्वात्मक या धर्मादिषद्रव्यमय लोक का अस्तित्व स्वतः सिद्ध है, और जहाँ धर्मास्तिकाय आदि षद्रव्य नहीं हैं, केवल आकाश है, वहाँ अलोक का अस्तित्व है । यह भी अनुमान एवं आगम प्रमाण से सिद्ध है |
(२) जीव और प्रजीव - पंचमहाभूतवादी जीव ( आत्मा ) का पृथक् अस्तित्व नहीं मानते । वे कहते हैं—पंचभूतों के शरीर के रूप में परिणत होने पर चैतन्य गुण उन्हीं से उत्पन्न हो जाता है, कोई आत्मा नामक स्वतन्त्र पदार्थ नहीं है । दूसरे आत्माद्वैतवादी ( वेदान्ती) अजीव का पृथक् अस्तित्व नहीं मानते, वे कहते हैं - सारा जगत् ब्रह्म ( आत्मा ) रूप है, चेतन-अचेतन सभी पदार्थ ब्रह्मरूप है, ब्रह्म के कार्य हैं । आत्मा से भिन्न जीव अजीव आदि पदार्थों को मानना भ्रम है । परन्तु ये दोनों मत युक्ति प्रमाण विरुद्ध हैं । जैनदर्शन का मन्तव्य है - उपयोग लक्षण वाले जीव का स्वतन्त्र अस्तित्व स्वसंवेदन प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम आदि प्रमाणों से सिद्ध है, वह अनादि है और पंचमहाभूतों का कार्य नहीं है, जड़ पंचमहाभूतों से चैतन्य की उत्पत्ति सम्भव नहीं है । अजीव द्रव्य का भी स्वतन्त्र अस्तित्व प्रत्यक्षादिप्रमाणों से सिद्ध है । यदि जीवादिपदार्थ एक ही आत्मा (ब्रह्म) से उत्पन्न होते तो उनमें परस्पर समानता होती, विचित्रता न होती । घट, पट आदि अचेतन अनन्त पदार्थ चेतनरूप आत्मा के परिणाम या कार्य होते तो, वे भी जीव की तरह स्वतन्त्ररूप से गति आदि कर सकते, परन्तु उनमें ऐसा नहीं देखा जाता । इसके अतिरिक्त संसार में आत्मा एक ही होता तो कोई सुखी, कोई दुःखी, कोई बद्ध, कोई मुक्त आदि विभिन्न अवस्थाएँ दृष्टिगोचर न होती । एक जीव के सुख से
१. ( क ) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक ३७६, (ख) सूत्रकृ. नियुक्ति गा. १८२. २. स्थानांगसूत्र स्थान १० उ. सू. अभयदेवसूरिटीका ।