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प्रत्याख्यान-क्रिया : चतुर्थ अध्ययन : सूत्र ७४७] 'आत्मा' शब्द बहुत शीघ्र और अचूक रूप से प्रकट कर सकता है, क्योंकि आत्मा की व्युत्पत्ति है'जो विभिन्न योनियों-गतियों में सतत गमन करता है।''
दूसरा आशय है-बौद्धदर्शन सम्मत आत्मासम्बन्धी मान्यता का निराकरण करना, क्योंकि बौद्धदर्शन में आत्मा क्षणिक (स्थितिहीन) होने से उसका प्रत्याख्यानी होना सम्भव नहीं हो सकता।
तीसरा प्राशय है-सांख्यदर्शन में मान्य आत्मा सम्बन्धी मन्तव्य का खण्डन । सांख्यदर्शनानुसार आत्मा उत्पत्ति-विनाश से रहति, स्थिर (कूटस्थ) एवं एकस्वभाव वाला है । ऐसा कूटस्थ स्थिर आत्मा न तो अनेक योनियों में गमन कर सकता है, न ही किसी प्रकार का प्रत्याख्यान ।
अप्रत्याख्यानी प्रात्मा के प्रकार-(१) प्रत्याख्यान से सर्वथा रहित, (२) शुभक्रिया करने में अकुशल, (३) मिथ्यात्व से ग्रस्त, (४) एकान्त प्राणिदण्ड (घात) देने वाला, (५) एकान्त बाल, (६) एकान्त सुप्त, (७) मन, वचन, शरीर और वाक्य (किसी विशेष अर्थ का प्रतिपादक पदसमूह) का प्रयोग करने में विचारशून्य एवं (८) पापकर्म के विघात एवं प्रत्याख्यान (त्याग) से रहित आत्मा अप्रत्याख्यानी है।
- अप्रत्याख्यानी प्रात्मा का स्वरूप-वह असंयमी, हिंसादि से अविरत, पापकर्म का नाश और प्रत्याख्यान न करने वाला, अहर्निशदुष्क्रियारत, संवररहित, एकान्त हिंसक (दण्डदाता), एकान्तबाल एवं एकान्तसुप्त (सुषुप्तचेतनावाला) होता है । ऐसा बालकवत् हिताहितभावरहित एकान्त प्रमादी जीव मन, वचन, काया और वाक्य की किसी प्रवृत्ति में प्रयुक्त करते समय जरा भी विचार नहीं करता कि मेरी इस प्रवृत्ति से दूसरे प्राणियों की क्या दशा होगी? ऐसा जीव चाहे स्वप्न न भी देखे, यानी उनका विज्ञान (चैतन्य) इतना अव्यक्त- गाढ़ सुषुप्त हो, तो भी वह पापकर्म करता रहता है-अर्थात् उसके पापकर्म का बन्ध होता रहता है।
पारिभाषिक शब्दों के भावार्थ-प्रसंयत–वर्तमान में सावद्यकृत्यों में निरंकुश प्रवृत्त, अविरत -जो अतीत और अनागतकालीन हिंसादि पापों से निवृत्त हो, अप्रतिहतपापकर्मा-पूर्वकृत पापकर्मों की स्थिति और अनुभाग को वर्तमान में तप आदि द्वारा कम करके जो उन्हें नष्ट नहीं कर पाता।
यात पापकर्मा-भावी पापकर्मों का प्रत्याख्यान न करने वाला, सक्रिय सावधक्रियाओं से युक्त, असंवृत–जो प्राते हुए कर्मों के निरोधरूप व्यापार से रहित हो । सुप्त-भावनिद्रा में सोया हुआ, हिताहित प्राप्ति परिहार के भाव से रहित । प्रत्याख्यान-पूर्वकृत दोषों (अतिचारों) की निन्दा (पश्चात्ताप) एवं गर्हा करके भविष्य में उक्तपाप को न करने का संकल्प करना। .
किसी समय प्रत्याख्यानी भी- अनादिकाल से जीवमिथ्यात्वादि के संयोग के कारण अप्रत्याख्यानी अवस्था में रहता चला आ रहा है, किन्तु कदाचित् शुभकर्मों के निमित्त से प्रत्याख्यानी भी होता है, इसे प्रकट करने के लिए मूल पाठ में 'अवि' (अपि) शब्द का प्रयोग किया गया है ।
१. 'अतति सततं (विभिन्न गतिषु योनिषु च) गच्छतीति आत्मा' । २. (क) सूत्रकृतांगसूत्र शीलांकवृत्ति पत्रांक ३६१
(ख) आवश्यकसूत्र चूणि प्रतिक्रमणाध्ययन