________________
पच्चक्खाणकिरिया : चउत्थ अज्झयणं
प्रत्याख्यान - क्रिया : चतुर्थ अध्ययन
श्रप्रत्यख्यानी श्रात्मा का स्वरूप और प्रकार -
७४७ – सुयं में श्राउसंतेणं भगवता एवमक्खातं इह खलु पच्चक्खाणकिरिया नामज्झयणे, तस्स णं यम - श्राया श्रपच्चक्खाणी यावि भवति, श्राया प्रकिरियाकुसले यावि भवति, प्राया मिच्छासंठिए यावि भवति, आया एगंतदंडे यावि भवति, आया एगंतबाले यावि भवति श्राया एगंतसुत्ते यावि भवति, आया वियारमण वयस - काय वक्के यावि भवति श्राया श्रप्पडिहय-प्रपञ्चषखाय पावकम्मे यावि भवति, एस खलु भगवता श्रक्खाते श्रसंजते श्रविरते श्रपडिहयपच्चवखायपावकम्मे सकिरिए श्रसंबुडे एगंतदंडे एगंतबाले एगंतसुत्ते से बाले श्रवियारमण वयस काय वक्के सुविणमविण पसति, पावे से कम्मे कज्जति ।
७४७ - आयुष्मन् ! उन तीर्थंकर भगवान् महावीर स्वामी ने ऐसा कहा था, -- मैंने सुना है । इस निर्ग्रन्थप्रवचन में प्रत्याख्यानक्रिया नामक अध्ययन है । उसका यह अर्थ (भाव) ( उन्होंने बताया है कि आत्मा (जीव) अप्रत्याख्यानी ( सावद्यकर्मों का त्याग न करने वाला) भी होता है; आत्मा अकुशल (शुभक्रिया न करने में निपुण) भी होता है; आत्मा मिथ्यात्व ( के उदय) में संस्थित भी होता है; आत्मा एकान्तरूप से दूसरे प्राणियों को दण्ड देने वाला भी होता है; आत्मा एकान्त (सर्वथा) बाल (अज्ञानी) भी होता है; आत्मा एकान्तरूप से सुषुप्त भी होता है; आत्मा अपने मन, वचन, काया और वाक्य ( की प्रवृत्ति) पर विचार न करने वाला ( अविचारी) भी होता है । और आत्मा अपने पापकर्मों का प्रतिहत- घात एवं प्रत्याख्यान नहीं करता। इस जीव (आत्मा) को भगवान् ने संयत (संयमहीन), अविरत ( हिंसा आदि से अनिवृत्त), पापकर्म का घात ( नाश) और प्रत्याख्यान (त्याग) न किया हुआ, क्रियासहित, संवररहित, प्राणियों को एकान्त (सर्वथा ) दण्ड देने वाला, एकान्त बाल, एकान्तसुप्त कहा है । मन, वचन, काया और वाक्य ( की प्रवृत्ति) के विचार से रहित वह अज्ञानी, चाहे स्वप्न भी न देखता हो अर्थात् प्रत्यन्त अव्यक्त विज्ञान से युक्त हो, तो भी वह पापकर्म करता है।
विवेचन - प्रत्याख्यानी श्रात्मा का स्वरूप और प्रकार - प्रस्तुत सूत्र में अध्ययन का प्रारम्भ करते हुए शास्त्रकार ने अप्रत्याख्यानी आत्मा के प्रकार और उसके स्वरूप का निरूपण किया है । 'जीव' के बदले 'आत्मा' शब्द का प्रयोग क्यों ? मूलपाठ में 'जीव' शब्द के बदले 'आत्मा' शब्द का प्रयोग करने के पीछे प्रथम आशय यह है कि अप्रत्याख्यानी जीव लगातार एक भव से दूसरें भव में नानाविध गतियों और योनियों में भ्रमण करता रहता है, इस बात को जीव शब्द की अपेक्षा