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________________ आहारपपिज्ञा : तृतीय अध्ययन : सूत्र ७४५ ] [ १२९ णाणाविधाणं तस-थावराणं पाणाणं सिणेहमाहारेंति, ते जीवा प्राहारेंति, पुढविसरीरं जाव संतं, अवरे वि य णं तेसि तस-थावरजोणियाणं पुढवीणं जाव सूरकंताणं सरीरा णाणावण्णा जाव मक्खातं, सेसा तिणि पालावगा जहा उदगाणं । ७४५-इसके पश्चात् श्रीतीर्थंकर भगवान् ने (इस सम्बन्ध में) और भी बातें बताई हैं। इस संसार में कितने ही जीव नानाप्रकार की योनियों में उत्पन्न होकर उनमें अपने किये हुए कर्म के प्रभाव से पृथ्वीकाय में आकर अनेक प्रकार के बस-स्थावरप्राणियों के सचित्त या अचित्त शरीरों में पृथ्वी, शर्करा (कंकर) या बालू के रूप में उत्पन्न होते हैं। इस विषय में इन गाथाओं के अनुसार इसके भेद जान लेने चाहिए पृथ्वी, शर्करा (कंकर) बालू (रेत), पत्थर, शिला (चट्टान), नमक, लोहा, रांगा (कथीर), तांबा, चांदी, शीशा, सोना और वज्र (हीरा), तथा हड़ताल, हींगलू, मनसिल, सासक, अंजन, प्रवाल (मूगा), अभ्रपटल (अभ्रक), अभ्रबालुका, ये सब पृथ्वीकाय के भेद हैं। गोमेदक रत्न, रुचकतरत्न, अंकरत्न, स्फटिकरत्न, लोहिताक्षरत्न, मरकतरत्न, मसारगल, भुजपरिमोचकरत्न तथा इन्द्रनीलमणि, चन्दन, गेरुक, हंसगर्भ, पुलक, सौगन्धिक, चन्द्रप्रभ, वैडूर्य, जलकान्त, एवं सूर्यकान्त, ये मणियों के भेद हैं । इन (उपर्युक्त) गाथाओं में उक्त जो मणि, रत्न आदि कहे गए हैं, उन (पृथ्वी से ले कर सूर्यकान्त तक की योनियों) में वे जीव उत्पन्न होते हैं। (उस समय) वे जीव अनेक प्रकार के त्रस-स्थावर प्राणियों के स्नेह का आहार करते हैं । (इसके अतिरिक्त) वे जीव पृथ्वी आदि शरीरों का भी आहार करते हैं। उन स और स्थावरों से उत्पन्न पृथ्वी से लेकर सूर्यकान्तमणि-पर्यन्त प्राणियों के दूसरे शरीर भी नाना वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, संस्थान आदि की अपेक्षा से बताए गए हैं। शेष तीन आलापक जलकायिक जीव के आलापकों के समान ही समझ लेने चाहिए।' विवेचनअप्काय, अग्निकाय, वायुकाय, और पृथ्वीकाय के प्राहारादि का निरूपण-प्रस्तुत ७ सूत्रों (७३६ से ७४५ तक) में वनस्पतिकाय के अतिरिक्त शेष चार स्थावरजीवों की उत्पत्ति, स्थिति, संवृद्धि एवं आहारादि की प्रक्रिया का निरूपण किया गया है। प्रकाय के चार पालापक-अप्कायिक जीवों के शास्त्रकार ने चार आलापक बताकर उनकी उत्पत्ति, आहार आदि की प्रक्रिया पृथक्-पृथक् रूप से बताई है। जैसे कि (१) वायुयोनिक अप्काय-मेंढक आदि त्रस तथा नमक और हरित आदि स्थावर प्राणियों के सचित्त-अचित्त नानाविध शरीरों में वायुयोनिक अप्काय के रूप में जन्म धारण करते हैं। इनकी स्थिति, संवृद्धि और प्राथमिक आहारग्रहण का आधार वायुकाय है । (२) अपयोनिक अप्काय-जो पूर्वकृतकर्मानुसार एक अप्काय में ही दूसरे अप्काय के रूप में उत्पन्न होते हैं, वे अपयोनिक अप्काय कहलाते हैं । जैसे शुद्ध पानी से बर्फ के रूप में अप्काय उत्पन्न होता है । शेष सब प्रक्रिया पूर्ववत् है । १. सूत्रकृतांग शीलांकवृत्ति पत्रांक ३५७-३५८ का सारांश
SR No.003439
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages282
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_sutrakritang
File Size20 MB
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