SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 145
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२८ ] [ सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध भी प्ररूपणा की है । इस संसार में कितने ही जीव पूर्वजन्म में (कृतकर्मवश) नानाविध योनियों में उत्पन्न होकर वहाँ किये हुए कर्मोदयवशात् नाना प्रकार के त्रसस्थावर प्राणियों के सचित्त तथा अचित्त शरीर में अग्निकाय के रूप में उत्पन्न होते हैं। वे जीव उन विभिन्न प्रकार के त्रस-स्थावर प्राणियों के स्नेह का आहार करते हैं। इसके अतिरिक्त वे जीव पृथ्वी आदि के शरीरों का भी आहार करते हैं । उन त्रस-स्थावरयोनिक अग्निकायों के दूसरे और भी शरीर बताये गये हैं, जो नाना वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान आदि के होते हैं। शेष तीन पालापक (बोल) उदक के आलापकों के समान समझ लेने चाहिए। ७४४-प्रहावरं पुरक्खायं-इहेगतिया सत्ता नाणाविहजोणिया जाव कम्मणिदाणेणं तत्थवक्कमा णाणाविहाणं तस-थावराणं पाणाणं सरीरेसु सचित्तेसु वा अचित्तेसु वा वाउक्कायत्ताए विउट्टति, जहा अगणीणं तहा भाणियव्वा चत्तारि गमा। ७४४–इसके पश्चात् श्रीतीर्थंकरदेव ने अन्य (जीवों के आहारादि के सम्बन्ध में) कुछ बातें बताई हैं । इस संसार में कितने ही जीव पूर्वजन्म में नाना प्रकार की योनियों में आकर वहाँ किये हुए अपने कर्म के प्रभाव से त्रस और स्थावर प्राणियों के सचित्त या अचित्त शरीरों में वायुकाय के रूप में उत्पन्न होते हैं। यहाँ भी वायकाय के सम्बन्ध में शेष बातें तथा चार आलापक अग्निकाय के आलापकों के समान कह देने चाहिए। ७४५-प्रहावरं पुरक्खातं-इहेगतिया सत्ता णाणाविहजोणिया जाव कम्मनिदाणेणं तत्थवक्कमा णाणाविहाणं तस-थावराणं पाणाणं सरीरेसु सचित्तेसु वा अचित्तेसु वा पुढवित्ताए सक्करत्ताए वालुयत्ताए, इमानो गाहाम्रो प्रणुगंतव्वानो पुढवी य सक्करा वालुगा य उवले सिला य लोणूसे ।' प्रय तउय तंब सीसग रुप्प सुवण्णे य वइरे य ॥१॥ हरियाले हिंगुलए मणोसिला सासगंजण पवाले । अब्भपडलऽभवालुय बादरकाए मणिविहाणा ॥२॥ गोमेज्जए य रुयए अंके फलिहे य लोहियक्खे य । मरगय मसारगल्ले भुयमोयग इंदणीले य ॥३॥ चंदण गेरुय हंसगब्भ पुलए सोगंधिए य बोधव्वे । चंदप्पभ वेरुलिए जलकते सूरकते य ॥४॥ एतानो एतेसु भाणियव्वानो गाहासु (गाहामो) जाव सूरकंतत्ताए विउट्टति, ते जीवा तेसि १. तुलना करें—'पुढवी य सक्करा "सूरकतेय । एए खरपुढवीए नामा छत्तीसइं होंति ।' -प्राचारांग नियुक्ति गाथा ७३ से ७६ तथा प्रज्ञापना पद १ -उत्तराध्ययन अ. २६ । गा. ७३ से ७६ तक
SR No.003439
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages282
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_sutrakritang
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy