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________________ आहारपरिज्ञा : तृतीय अध्ययन : सूत्र ७३३ ] [ १२१ कुछ और बड़ा होने पर स्तनपान छोड़ कर दूध, दही, घृत, चावल, रोटी आदि पदार्थों का आहार करता है। इसके बाद अपने आहार के योग्य त्रस या स्थावर प्राणियों का आहार करता है। भुक्तपदार्थों को वह पचाकर अपने रूप में मिला लेता है। मनुष्यों के शरीर में जो रस, रक्त मांस, मेद (चर्बी), हड्डी, मज्जा और शुक्र में सात धातु पाए जाते हैं, वे भी उनके द्वारा किये गए आहारों से उत्पन्न होते हैं, जिनसे मनुष्यों के नाना प्रकार के शरीर बनते हैं । पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों की उत्पत्ति, स्थिति, संवद्धि एवं आहार की प्रक्रिया ७३३–प्रहावरं पुरक्खायं–णाणाविहाणं जलचरपंचिदियतिरिक्खजोणियाणं, तंजहामच्छाणं' जाव सुसुमाराणं, तेसिं च णं प्रहाबीएणं अहावगासेणं इत्थीए पुरिसस्स य कम्म० तहेव जाव ततो एगदेसेणं ओयमाहारेंति प्रणुपुव्वेणं वुड्ढा पलिपागमणुचिण्णा ततो कायातो प्रभिनिव्वट्टमाणा अंडं वेगता जणयंति, पोयं वेगता जणयंति, से अंडे उभिज्जमाणे इत्थि वेगया जणयंति पुरिसं वेगया जणयंति नपुसगं वेगया जणयंति, ते जीवा इहरा समाणा पाउसिणेहमाहारेंति अणुपुव्वेणं वुड्या वणस्सतिकायं तस थावरे य पाणे, ते जीवा प्राहारेति पुढविसरीरं जाव संतं, प्रवरे वि य गं तेसि णाणाविहाणं जलचरपंचिदियतिरिक्खजोणियाणं मच्छाणं जाव सुसुमाराणं सरीरा नाणावण्णा जाव मक्खायं। ७३३-इसके पश्चात् तीर्थंकरदेव ने अनेक प्रकार के पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक जलचरों का वर्णन इस प्रकार किया है, जैसे कि-मत्स्यों से लेकर सुसुमार तक के जीव पंचेन्द्रियजलचर तिर्यञ्च हैं । वे जीव अपने-अपने बीज और अवकाश के अनुसार स्त्री और पुरुष का संयोग होने पर स्वस्वकर्मानुसार पूर्वोक्त प्रकार के गर्भ में उत्पन्न (प्रविष्ट) होते हैं । फिर वे जीव गर्भ में माता के आहार के एकदेश को (आंशिक रूप से) ओज-आहार के रूप में ग्रहण करते हैं। इस प्रकार वे क्रमशः वृद्धि को प्राप्त हो कर गर्भ के परिपक्व होने (गर्भावस्था पूर्ण होने) पर माता की काया से बाहर निकल (पृथक् हो) कर कोई अण्डे के रूप में होते हैं, तो कोई पोत के रूप में होते हैं। जब वह अंडा फूट जाता है तो कोई स्त्री (मादा) के रूप में, कोई पुरुष (नर) के रूप में और कोई नपुसक के रूप में उत्पन्न होते हैं । वे जलचर जीव बाल्यावस्था में आने पर जल के स्नेह (रस) का आहार करते हैं। तत्पश्चात् क्रमशः बड़े होने पर वनस्पतिकाय तथा स-स्थावर प्राणियों का आहार करते हैं । (इसके अतिरिक्त) वे जीव पृथ्वी आदि के शरीरों का भी आहार करते हैं, एवं उन्हें पचा कर क्रमशः अपने रूप में परिणत कर लेते हैं। उन मछली, मगरमच्छ, कच्छप, ग्राह और घड़ियाल आदि सुसुमार तक के जलचर पंचेन्द्रियतिर्यञ्च जीवों के दूसरे भी नाना वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श वाले, नाना आकृति एवं अवयव रचना वाले तथा नाना पुद्गलों से रचित अनेक शरीर होते हैं, यह श्री तीर्थंकरदेव ने कहा है। ७३४-प्रहावरं पुरक्खायं-नाणाविहाणं चउप्पयथलचरपंचिदियतिरिक्खजोणियाणं, तंजहाएगखुराणं दुखुराणं गंडीपदाणं सणप्फयाणं, तेसिं च णं प्रहाबीएणं अहावगासेणं इत्थीए पुरिसस्स य १. तुलना-जलचर पंचिदिय तिरिक्ख जोणिया ..."मच्छा, कच्छपा ....."सुसुमारा।"-प्रज्ञापना सूत्र पद १.
SR No.003439
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages282
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_sutrakritang
File Size20 MB
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