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________________ १२० ] [ सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध देव और नारक अल्पज्ञों द्वारा प्रत्यक्ष नहीं दिखाई देते, अनुमान-प्रागम से जाने जाते हैं, इस कारण देव एवं नारक को छोड़ कर यहाँ सर्वप्रथम मनुष्य के आहारादि का वर्णन किया गया है। देव और नारकों का प्राहार-नारक जीव अपने पापकर्मों का फल भोगने वाले जीव हैं, जबकि देव प्रायः अपने शुभकर्मों का फल भोगने वाले जीव हैं। नारकजीवों का आहार एकान्त अशुभपुद्गलों का होता है, जबकि देवों का आहार शुभपुद्गलों का होता है। देव और नारक दोनों ही अोज आहार को ग्रहण करते हैं, कवलाहार नहीं करते । प्रोज-पाहार दो प्रकार का होता हैपहला अनाभोगकृत, जो प्रतिसमय होता रहता है, दूसरा आभोगकृत, जो जघन्य चतुर्थभक्त से लेकर उत्कृष्ट ३३ हजार वर्ष में होता है। मनुष्य की उत्पत्ति की प्रक्रिया-जब स्त्री और पुरुष का सुरतसुखेच्छा से संयोग होता है, तब जीव अपने कर्मानुसार स्त्री के गर्भ में उत्पन्न होता है। वह संयोग उस जीव की उत्पत्ति का कारण उसी तरह होता है, जिस तरह दो अरणि की लकड़ियों का संयोग (घर्षण) अग्नि की उत्पत्ति का कारण होता है । उत्पन्न होने वाला जीव कर्मप्रेरित होकर तेजस-कार्मणशरीर के द्वारा पुरुष के शुक्र और स्त्री के शोणित (रज) के आश्रय से उत्पन्न होता है। स्त्री, पुरुष एवं नपुंसक को उत्पत्ति का रहस्य-शास्त्रकार ने इसके रहस्य के लिए दो मुख्य कारण बताए हैं-यथाबीज एवं यथावकाश। इसका आशय बताते हुए वृत्तिकार कहते हैं-बीज कहते हैं -पुरुष के वीर्य और स्त्री के रज को । सामान्यतया स्त्री, पुरुष या नपुसक की उत्पत्ति भिन्नभिन्न बीज के अनुसार होती है। स्त्री का रज और पुरुष का वीर्य दोनों अविध्वस्त हो, यानी संतानोत्पत्ति की योग्यता वाले हों-दोषरहित हों, और रज की अपेक्षा वीर्य की मात्रा अधिक हो तो पुरुष की, रज की मात्रा अधिक और वीर्य की मात्रा कम हो तो स्त्री की, एवं दोनों समान मात्रा में हों तो नपुंसक की उत्पत्ति होती है। ५५ वर्ष से कम उम्र की स्त्री की एवं ७० वर्ष से कम उम्र के पुरुष की अविध्वस्तयोनि त्पत्ति का कारण मानी जाती है। इसके अतिरिक्त शुक्र-शोणित भी १२ मुहर्त तक ही संतानोत्पत्ति की शक्ति रखते हैं, तत्पश्चात् वे शक्तिहीन एवं विध्वस्तयोनि हो जाते हैं । इस भिन्नता का दूसरा कारण बताया है—'यथावकाश' अर्थात्-माता के उदर, कुक्षि आदि के अवकाश के अनुसार स्त्री, पुरुष या नपुसक होता है। सामान्यतया माता की दक्षिण कुक्षि से पुरुष की एवं वामकुक्षि से स्त्री की तथा दोनों ही कुक्षि से नपुसक की उत्पत्ति होती है। ___ इसके अतिरिक्त स्त्री, पुरुष या नपुसक होने का सबसे प्रधान कारण प्राणी का स्वकृत कर्म है । ऐसा सिद्धान्त नहीं है कि स्त्री मरकर अगले जन्म में स्त्री ही हो, पुरुष मर कर पुरुष ही हो । यह सब कर्माधीन है । कर्मानुसार ही वैसे बीज और वैसे अवकाश का संयोग मिलता है।' स्थिति, वृद्धि एवं प्राहार की प्रक्रिया-स्त्री की कुक्षि में प्रविष्ट होकर वह प्राणी स्त्री द्वारा प्रहार किये हुए पदार्थों के स्नेह का आहार करता है। उस स्नेह के रूप में प्राप्त माता के आहारांश का आहार करता हुआ, वह बढ़ता है। माता के गर्भ (उदर) से निकल कर वह बालक पूर्वजन्म के अभ्यासवश आहार लेने की इच्छा से माता का स्तनपान करता है। उसके पश्चात् वह १. सूत्रकृतांग शीलांकवृत्ति, पत्रांक ३५३-३५४ का सारांश । संतानो
SR No.003439
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages282
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_sutrakritang
File Size20 MB
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