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________________ ११४ ] [ सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध (३) हरित योनिक हरितों में हरित (अध्यारूह) के रूप में, एवं (४) हरितयोनिक हरितों में मूल से लेकर बीज तक के रूप में एवं उनका सारा वर्णन भी पूर्ववत् समझ लेना चाहिए । ७२८-प्रहावरं पुरक्खायं-इहेगतिया सत्ता पुढविजोणिया पुढविसंभवा जाव कम्मनियाणेणं तत्थवक्कमा नाणाविहजोगियासु पुढवीसु प्रायत्ताए वायत्ताए कायत्ताए कुहणत्ताए' कंदुकत्ताए उज्वेहलियत्ताए निव्वेहलियत्ताए सछत्ताए सज्झत्ताए छत्तगत्ताए वासाणियत्ताए कूरत्ताए विउटति, ते जीवा तेसि नाणाविहजोणियाणं पुढवीणं सिणेहमाहारेंति, ते जीवा पाहारेंति पुढविसरीरं जाव संतं, अवरे वि य णं तेसि पुढविजोणियाणं आयाणं जाव कुराणं सरोरा नाणावण्णा जाव मक्खातं, एक्को चेव पालावगो (१), सेसा तिण्णि नत्थि । ७२८-श्रीतीर्थंकरदेव ने वनस्पतिकाय के और भी भेद बताए हैं। इस वनस्पतिकाय जगत् में कई जीव पृथ्वीयोनिक होते हैं, वे पृथ्वी से उत्पन्न होते हैं, पृथ्वी पर ही रहते और उसी पर ही विकसित होते हैं। वे पूर्वोक्त पृथ्वीयोनिक वनस्पतिजीव स्व-स्वकर्मोदयवश कर्म के कारण ही वहाँ आकर उत्पन्न होते हैं। वे नाना प्रकार को योनि (जाति) वाली पृथ्वियों पर आर्य, वाय, काय, कहण, कन्दुक, उपेहणी, निर्वहणी, सछत्रक, छत्रक, वासानी एवं कूर नामक वनस्पति के रूप में उत्पन्न होते हैं। वे (पूर्वोक्त) जीव उन नानाविध योनियों वाली पृथ्वियों के स्नेह का आहार करते हैं, तथा वे जीव पृथ्वीकाय आदि छहों काय के जीवों के शरीर का आहार करते हैं। पहले उनसे रस खींच कर वे उन्हें अचित्त-प्रासुक कर देते हैं, फिर उन्हें अपने रूप में परिणत कर लेते हैं। उन पृथ्वीयोनिक (विविध पृथ्वियों से उत्पन्न) आर्यवनस्पति से लेकर क्रूरवनस्पति तक के जीवों के विभिन्न वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श आकार-प्रकार और ढांचे वाले तथा विविध पुद्गलों से रचित दूसरे शरीर भी होते हैं । इन जीवों का एक ही पालापक होता है, शेष तीन आलापक नहीं होते। ७२६-प्रहावरं पुरक्खातं-इहेगतिया सत्ता उदगजोणिया उदगसंभवा जाव कम्मनियाणेणं तत्थवक्कमा णाणाविहजोणिएसु उदएसु रुक्खत्ताए विउ ति, ते जीवा तेसि णाणाविहजोणियाणं उदगाणं सिणेहमाहारेंति, ते जीवा प्राहारेंति पुढविसरीरं जाव संतं, अवरे वि य णं तेसि उदगजोणियाणं रुक्खाणं सरीरा णाणावण्णा जाव मक्खायं, जहा पुढविजोणियाणं रुक्खाणं चत्तारि गमा [४] अज्झोरहाण वि तहेव [४], तणाणं प्रोसहीणं हरियाणं चत्तारि पालावगा भाणियव्वा एक्केक्के [४, ४, ४] । ७२६–श्रीतीर्थंकरप्रभु ने वनस्पतिकाय के और भी भेदों का निरूपण किया है । इस वनस्पतिकायजगत् में कई उदकयोनिक (जल में उत्पन्न होने वाली) वनस्पतियाँ होती हैं, जो जल में ही उत्पन्न होती हैं, जल में ही रहती और उसी में बढ़ती हैं । वे उदकयोनिक वनस्पति जीव पूर्वकृत कर्मोदयवश-कर्मों के कारण ही उनमें आते हैं और नाना प्रकार की योनियों (जातियों) वाले उदकों (जलकायों) में वृक्षरूप में उत्पन्न होते हैं। वे जीव नानाप्रकार के जाति वाले जलों के स्नेह का आहार करते हैं । इसके अतिरिक्त वे जीव पृथ्वी, जल, तेज, वायु और वनस्पतिकाय के शरीरों का भी १. तुलना- "कुहणा अणेगविहा पन्नत्ता, तं० आए काए कुहणे "कुरए।" -प्रज्ञापना सूत्र प्रथम पद
SR No.003439
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages282
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_sutrakritang
File Size20 MB
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