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आहारपरिज्ञा : तृतीय अध्ययन : सूत्र ७२६ ]
[ ११३ जोणियासु पुढवीसु तणत्ताए विउटति, ते जीबा तेसिं नागाविहजोणियाणं पुढबीणं सिणेहमाहारेंति जाव ते जीवा कम्मोववन्ना भवंतीति मक्खायं ।
(२) एवं पुढविजोणिएसु तणेसु तणत्ताए विउटति जाव मक्खायं । (३) एवं तणजोणिएसु तणेसु तणत्ताए विउटति जाव मक्खायं । (४) एवं तणजोणिएसु तणेसु मूलत्ताए जाव बीयत्ताए विउटति, ते जीवा जाव एवमक्खायं ।
७२५–(१) श्रीतीर्थंकरदेव ने वनस्पतिकायिक जीवों के और भेद भी बताए हैं। इस वनस्पतिकायिक जगत् में कई प्राणी पृथ्वीयोनिक होते हैं, वे पृथ्वी से ही उत्पन्न होते हैं, पृथ्वी में ही स्थित होकर उसी में संवर्धन पाते हैं। इस प्रकार पृथ्वी में ही उत्पन्न, स्थित एवं संवृद्ध वे जीव स्वकर्मोदयवश ही नाना प्रकार की जाति (योनि) वाली पृथ्वियों पर तृणरूप में उत्पन्न होते हैं । वे
जीव उन नाना जाति वाली पवियों के स्नेह (स्निग्धरस) का प्रहार करते हैं। वे पृथ्वी से लेकर वनस्पति तक के शरीरों का आहार करते हैं। त्रस-स्थावर जीवों के शरीरों को अचित्त, प्रासुक एवं स्वरूप में परिणत कर लेते हैं। वे जीव कर्म से प्रेरित होकर ही पृथ्वीयोनिक तृण के रूप में उत्पन्न होते हैं, इत्यादि सब वर्णन पूर्ववत् समझ लेना चाहिए । यह सब श्रीतीर्थंकर प्रभु ने कहा है।
(२) इसी प्रकार कई (वनस्पतिकायिक) जीव पृथ्वीयोनिक तृणों में तृण रूप से उत्पन्न होते हैं, वहीं स्थित रहते, एवं संवृद्ध होते हैं। वे पृथ्वीयोनिक तृणों के शरीर का आहार करते हैं, इत्यादि समस्त वर्णन पूर्ववत् समझ लेना चाहिए।
(३) इसी तरह कई (वनस्पतिकायिक) जीव तृणयोनिक तृणों में (स्वकृतकर्मोदयवश) तृणरूप में उत्पन्न होते हैं, वहीं स्थित एवं संवृद्ध होते हैं। वे जीव तृणयोनिक तृणों के शरीर का ही आहार ग्रहण करते हैं । शेष सारा वर्णन पहले की तरह यहाँ भी समझ लेना चाहिए ।
(४) इसीप्रकार कई (वनस्पतिकायिक) जीव तृणयोनिक तृणों में मूल, कन्द, स्कन्ध, त्वचा, शाखा, प्रवाल, पत्र, पूष्प, फल एवं बीजरूप में (कर्मोदयवश) उत्पन्न होते हैं, वहीं स्थित रहते एवं संवृद्ध होते हैं। वे उन्हीं तृणयोनिक तृणों का आहार करते हैं। इन जीवों का शेष समस्त वर्णन भी पूर्ववत् समझ लेना चाहिए।
७२६–एवं प्रोसहीण वि चत्तारि पालावगा (४) । ७२६–इसी प्रकार औषधिरूप में उत्पन्न (वनस्पतिकायिक) जीवों के भी चार आलापक
गों में औषधि विविध अन्नादि की पर्क फसल के रूप में, (२) पृथ्वीयोनिक औषधियों में औषधि के रूप में, (३) औषधियोनिक औषधियों में औषध के रूप में, एवं (४) औषधियोनिक औषधियों में (मूल से लेकर बीज तक के रूप में उत्पत्ति) और उनका सारा वर्णन भी पूर्ववत समझ लेना चाहिए।
७२७–एवं हरियाण वि चत्तारि पालावगा (४) ।
७२७–इसी प्रकार हरितरूप में उत्पन्न वनस्पतिकायिक जीवों के भी चार आलापक [(१) नानाविध पृथ्वीयोनिक पृथ्वियों पर हरित के रूप में, (२) पृथ्वीयोनिक हरितों में हरित के रूप में, .
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(१) नानाविधा
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