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आहारपरिज्ञा : तृतीय अध्ययन
प्राथमिक
। सूत्रकृतांग (द्वि. श्रु.) के तृतीय अध्ययन का नाम 'आहारपरिज्ञा' है । । शरीरधारी प्राणी को आहार ग्रहण करना अनिवार्य होता है, उसके बिना शरीर की स्थिति सम्भव नहीं है । साधु-साध्वियों को भी आहार-ग्रहण करना आवश्यक होता है। वे दोषरहित
हार से ही अपने शरीर की रक्षा करें, अशुद्ध अकल्पनीय से नहीं; के अतिरिक्त भी अन्य किस किस आहार से शरीर को पोषण मिलता है, अन्य जीवों के आहार की पूर्ति कैसे और किस प्रकार के आहार से होती है ? इस प्रकार जीवों के आहार के सम्बन्ध में साधकों को विविध परिज्ञान कराने के कारण इस अध्ययन का नाम 'पाहारपरिज्ञा' रखा
गया है। 1 मुख्यतया आहार के दो भेद हैं-द्रव्याहार एवं भावाहार । द्रव्याहार सचित्त, अचित्त और मिश्र तीन प्रकार का है। प्राणिवर्ग क्षुधा वेदनीय कर्मोदय से जब किसी वस्तु का आहार करता है, वह भावाहार है। समस्त प्राणी तीन प्रकार से भावाहार ग्रहण करते हैं—प्रोज-पाहार, रोम-पाहार और
प्रक्षेपाहार। - जब तक औदारिक रूप में दृश्यमान शरीर उत्पन्न नहीं होता, (किन्हीं प्राचार्यों के मत
से जब तक इन्द्रिय, प्राण, भाषा और मन की उत्पत्ति नहीं होती); तब तक तैजस-कार्मण एवं मिश्र शरीर द्वारा ग्रहण किया जाने वाला आहार प्रोज-पाहार है। शरीर की रचना पूर्ण होने के बाद बाहर की त्वचा (स्पर्शेन्द्रिय) से या रोमकूप से प्राणियों द्वारा ग्रहण किया जाने वाला आहार रोमाहार या लोमाहार है। मुख-जिह्वा आदि द्वारा जो कवल (कौर), बूद, कण, कतरे आदि के रूप में जो आहार ग्रहण किया जाता है, उसे प्रक्षेपाहार (कवलाहार) कहते हैं। 0 अपर्याप्त जीवों का अोज आहार, देवों-नारकों का रोमाहार, तथा अन्य पर्याप्त जीवों
का प्रेक्षपाहार होता है । केवली अनन्तवीर्य होते हुए भी उनमें पर्याप्तित्व, वेदनीयोदय, आहार
को पचाने वाला तैजस् शरीर और दीर्घायुष्कता होने से उनका कवलाहार करना युक्तिसिद्ध है। । चार अवस्थाओं में जीव आहार नहीं करता-(१) विग्रहगति के समय, (२) केवली
समुद्घात के तीसरे, चौथे, पांचवें समय में, (३) शैलेशी अवस्था प्राप्त अयोगी केवली, (४) सिद्धि प्राप्त प्रात्मा ।