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[ सूत्रकृतांगसूत्र - द्वितीय श्र तस्कन्ध
तं जहा-धम्मे चैव श्रधम्मे चेव, उवसंते चैव प्रणुवसंते चेव । तत्थ णं जे से पढमस्स ठाणस्स श्रधम्मपक्स विभंगे एवमाहिते, तस्स णं इमाई तिष्णि तेवट्ठाई पावाउयसताइं भवतीति श्रक्खाताई, तं जहा - किरियावादीणं प्रकिरियावादीणं प्रण्णाणियवादीणं वेणइयवादीणं, ते वि निव्वाणमाहंसु, ते वि पलिमक्खमाहं, ते वि लवंति सावगा, ' ते वि लवंति सावइत्तारो ।
७१७. (संक्षेप में) सम्यक् विचार करने पर ये तीनों पक्ष दो ही स्थानों में समाविष्ट हो जाते हैं- जैसे कि धर्म में और अधर्म में, उपशान्त और अनुपशान्त में। पहले जो अधर्मस्थान का विचार पूर्वोक्त प्रकार से किया गया है, उसमें इन ३६३ प्रावादुकों ( मतवादियों) का समावेश हो जाता है, यह पूर्वाचार्यों ने कहा है । वे ( चार कोटि के प्रावादुक) इस प्रकार हैं - क्रियावादी, प्रक्रियावादी, अज्ञानवादी और विनयवादी । वे भी 'परिनिर्वाण' का प्रतिपादन करते हैं; वे भी मोक्ष का निरूपण करते हैं; वे भी अपने श्रावकों को धर्मोपदेश करते हैं ( उनसे प्रालाप करते हैं) वे भी अपने धर्म को सुनाते हैं ।
७१८ - ते सव्वे पावाच्या श्रादिकरा धम्माणं नाणापण्णा नाणाछंदा नाणासीला नाणादिट्ठी नाणारुई नाणारंभा नाणाज्भवसाणसंजुत्ता एगं महं मंडलिबंधं किच्चा सव्वे एगश्रो चिट्ठति, पुरिसे य सागणियाणं इंगालाणं पाति बहुपडिपुण्णं प्रयोमएणं संडासएणं गहाय ते सव्वे पावाउए श्राइगरे धम्माणं नाणापणे जाव नाणाज्भवसाणसंजुत्ते एवं वदासी - हं भो पावाडया प्रादियरा धम्माणं णाणापण्णा जावज्भवसाणसंजुत्ता ! इमं ता तुम्भे सागणियाणं इंगालाणं पाति बहुपडिपुण्णं गहाय मुहुत्तगं मुहुत्तगं पाणिण धरेह, णो यहु संडासगं संसारियं कुज्जा, णो य हु श्रग्गिथंभणियं कुज्जा, णो य हुसाहम्मियवेयावडियं ४ कुज्जा, जोय हुपरधम्मियवेयावडियं कुज्जा, उज्जुया नियागपडिवन्ना" श्रमायं कुव्वमाणा पाणि
साह, इति वच्चा से पुरिसे तसि पावादुयाणं तं सागणियाणं इंगालाणं पाति बहुपडिपुण्णं श्रोम संडासतेणं गहाय पाणिसु णिसिरति, तते णं ते पावाउया श्रादिगरा धम्माणं नाणापन्ना जाव नाणा
१. ते वि लवंति सावगा - चूर्णिकार प्रश्न उठाते हैं, लोग उनके पास क्यों सुनने व शरण लेने जाते हैं ? इसका उत्तर है - मिथ्यापद के प्रभाव से । आदि तीर्थंकर (अपने मत प्रवर्तकत्त्व की दृष्टि से ) कपिलादि श्रावकों को धर्मोपदेश देते हैं, उनके शिष्य भी परम्परा से धर्मश्रवण कराते हैं । धर्म श्रवण करने वाले 'श्रावक' या 'श्राव इतर ' कहलाते हैं ।
२. पावातिया - ' शास्तार इत्यर्थः तद्धि शास्तु भृशं वदन्तीति प्रावादुका:' प्रवदनशीला – सूत्र कृ. चूर्णि (सू. पा. टि. )
पृ. १९० । अर्थात् — प्रावादिक का अर्थ है - शास्ता, वे अपने अनुयायियों पर शासन - अनुशासन करने के लिए बहुत बोलते हैं, इसलिए वे प्रावादुक हैं । अथवा प्रवदनशील होने से प्रावादिक हैं ।
३. ' णो य अग्गिथंभणियं कुज्जा' - णो अग्गिथं भणविज्जाए आदिच्चमंतहि अग्गी थंभिज्जह - अर्थात् - अग्निस्तम्भन विद्या से या श्रादित्यमंत्रों से अग्निस्तम्भन न करें ।
४. ' णो साधम्मियवेयावडियं' - 'पासंडियस्स थंभेति, परपासंडितस्स वि परिचएण थंभेइ' - अर्थात् – 'साधर्मिक स्वतीर्थिक व्रतधारी इस आग को न रोके, न ही परपाषण्डी (अन्यतीर्थिक व्रतधारी) परिचयवश उस अग्नि को रोके ।
५. णिकायपडिवण्णा (पाठान्तर ) – सबहसाविता इत्यर्थः । अर्थात् - - शपथ लेकर प्रतिज्ञाबद्ध हुए ।
- सूत्र कृ. चूर्णि (मू. पा. टि. ) पृ. १९१