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________________ क्रियास्थान : द्वितीय अध्ययन सूत्र ७१६ ] [ ९९ ७१६ - प्रविति पडुच्च बाले प्राहिज्जति, विरति पहुंच्च पंडिते श्राहिज्जति, विरताविति पडुच्च बालपंडिते प्राहिज्जइ, तत्थ णं जा सा सव्वतो प्रविरती एस ठाणे श्रारंभट्ठाणे प्रणारिए जाव श्रसव्वदुक्ख पहीणमग्गे एगंतमिच्छे प्रसाहू, तत्थ तत्थ णं जा सा सव्वतो विरती एस ठाणे प्रणारंभस ठाणे श्ररिए जाव सव्वदुक्खप्पहीणमग्गे एगंतसम्मे साहू, तत्थ णं जा सा सव्वतो विरताठाणे प्रारंभाणारंभट्टाणे, एस ठाणे श्ररिए जाव सव्वदुक्खप्पहीणमग्गे एगंतसम्म साहू | इस तृतीय स्थान का स्वामी अविरति की अपेक्षा से बाल, विरति की अपेक्षा से पण्डित और विरता-विरति की अपेक्षा से बालपण्डित कहलाता है । विरती एस इन तीनों स्थानों में से समस्त पापों से अविरत होने का जो स्थान है, वह प्रारम्भस्थान है, अनार्य है, यावत् समस्त दुःखों का नाश न करने वाला एकान्त मिथ्या और बुरा ( असाधु ) है । इनमें से जो दूसरा स्थान है, जिसमें व्यक्ति सब पापों से विरत होता है, वह अनारम्भ स्थान एवं आर्य है, यावत् समस्त दुःखों का नाशक है, एकान्त सम्यक् एवं उत्तम है । तथा इनमें से जो तीसरा (मिश्र) स्थान है, जिसमें सब पापों से कुछ अंश में विरति और कुछ अंश में अविरति होती है, वह प्रारम्भ-नो आरम्भ स्थान है । यह स्थान भी प्रार्य है, यहाँ तक कि सर्वदुःखों का नाश करने वाला, एकान्त सम्यक् एवं उत्तम (स्थान) है | विवेचन - तृतीय स्थान - मिश्रपक्षः श्रधिकारी, वृत्ति, प्रवृत्ति और परिणाम - प्रस्तुत दो सूत्रों तृतीय स्थान के अधिकारी के स्वरूप, एवं उसकी वृत्ति प्रवृत्ति का निरूपण करते हुए अन्त में इसका परिणाम बताकर तीनों स्थानों की पारस्परिक उत्कृष्टता - निकृष्टता भी सूचित कर दी है । अधिकारी - मिश्र स्थान का अधिकारी श्रमणोपासक होता है, जो सामान्यतया धार्मिक एवं धर्मनिष्ठ होने के साथ-साथ अल्पारम्भी, अल्पपरिग्रही, अल्प इच्छा वाला, प्राणातिपात आदि पांचों पापों से देशतः विरत होता है । वृत्ति - जीवादि तत्त्वों का ज्ञाता, मार्गानुसारी के गुणों से सम्पन्न निर्ग्रन्थ प्रवचन के प्रति दृढ़ श्रद्धालु एवं धर्म सिद्धान्तों का सम्यग्ज्ञाता होता है । वह सरल स्वच्छ हृदय एवं उदार होता है । प्रवृत्ति - पर्व तिथियों में परिपूर्ण पोषधोपवास करता है, यथाशक्ति व्रत, नियम, त्याग, तप प्रत्याख्यानादि अंगीकार करता है, श्रमणों को ग्राह्य एषणीय पदार्थों का दान देता है । चिरकाल तक श्रावकवृत्ति में जीवनयापन करके अन्तिम समय में संल्लेखना - संथारापूर्वक अनशन करता है, आलोचना, प्रतिक्रमण करके समाधिपूर्वक मृत्यु का अवसर आने पर शरीर का व्युत्सर्ग कर देता है । परिणाम - वह विशिष्ट ऋद्धि, द्युति आदि से सम्पन्न देवलोकों में से किसी में देवरूप में उत्पन्न होता है । शास्त्रकार ने इसे भी द्वितीय स्थान की तरह प्रार्य एकान्त सम्यक् और उत्तम स्थान बताया है । ' दो स्थानों में सबका समावेश : क्यों, कैसे और दोनों की पहचान क्या ? ७१७ - एवामेव समणुगम्ममाणा समणुगाहिज्जमाणा इमेहिं चेव दोहि ठाणेहि समोयरंति, १. सूत्रकृतांग शीलांकवृत्ति, पत्रांक ३३५ - ३३६ का निष्कर्ष
SR No.003439
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages282
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_sutrakritang
File Size20 MB
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