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क्रियास्थान : द्वितीय अध्ययन : सूत्र ७१५ ]
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से जहाणामए समणोवासगा भवंति श्रभिगयजीवा ऽजीवा' उवलद्धपुण्ण-पावा श्रासव संवरaar - णिज्जर किरिया ऽहिकरण बंध मोक्खकुसला प्रसहिज्जदेवासुर-नाग सुवण्ण-जक्ख- रक्खसकिन्नर - किपुरिस - गरुल- गंधव्व-महोरगादीएहि देवगणेह निग्गंथातो पावयणातो प्रणतिक्कम णिज्जा इमो निग्गंथे पावणे निस्संकिता निक्कंखिता निव्वितिगछा लद्धट्टा गहियट्ठा पुच्छिट्ठा विणिच्छियट्ठा श्रभिट्टा मजपे माणुरागरत्ता 'प्रयमाउसो ! निग्गंथे पावयणे श्रट्ठे, श्रयं परमटठे, सेसे प्रणट्ठे' ऊसितफलिहा अवगुतदुवारा श्रचियत्तंतेउरघरपवेसा चाउद्दसमुद्दिट्ठपुण्णमासिणीसु पडिपुण्णं पोंसहं सम्मं श्रणुपालेमाणा समणे निग्गंथे फासुएसणिज्जेणं प्रसण पाण- खाइम साइमेणं वत्थ-पडिग्गह-कंबल - पाय छणं श्रोसहमे सज्जेणं पीढ-फलग-सेज्जासंथारएणं पडिलाभेमाणा बहूह सीलव्वत-गुण- वेरमणपच्चक्खाण-पोसहोववासेहिं ग्रहापरिग्गहितहि तवोकम्मे हि श्रप्पाणं भावमाणा विहरति ।
redi विहारेणं विहरमाणा बहूइं वासाइं समणोवासगपरियागं पाउणंति, पाउणित्ता श्राबाधंसि उप्पण्णंसि वा श्रणुप्पण्णंसि वा बहूई भत्ताई पच्चक्खाइंति, बहूई भत्ताइं पञ्चवखाइत्ता बहूई भत्ता असणाए छेदेंति, बहूइं भत्ताइं प्रणसणाए छेदेत्ता प्रालोइयपडिक्कंता समाहिपत्ता कालमासे कालं किच्चा प्रण्णयरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववत्तारो भवति, तं जहा- महिड्डिएसु महज्जुतिसु जाव महासुक्खेसु, सेसं तहेव जाव एस ठाणे प्रारिए जाव एगंतसम्म साहू । तच्चस्स ठाणस्स मीसगस्स विभंगे एवमाहिए ।
इसके पश्चात् तृतीय स्थान, जो मिश्रपक्ष है, उसका विभंग (विकल्प) इस प्रकार प्रतिपादित किया है - इस मनुष्यलोक में पूर्व आदि दिशाओं में कई मनुष्य होते हैं, जैसे कि वे अल्प इच्छा वाले, अल्पारम्भी और अल्पपरिग्रही होते हैं । वे धर्माचरण करते हैं, धर्म के अनुसार प्रवृत्ति करते हैं (अथवा धर्म की अनुज्ञा देते हैं), यहाँ तक कि ( यावत्) धर्मपूर्वक अपनी जीविका चलाते हु जीवनयापन करते हैं । वे सुशील, सुव्रती सुगमता से प्रसन्न हो जाने वाले और साधु ( साधनाशील सज्जन ) होते हैं । एक ओर वे किसी (स्थूल एवं संकल्पी) प्राणातिपात से जीवनभर विरत होते हैं तथा दूसरी १. तुलना - अभिगमजीवाऽजीवा" "भावेमाणा विहरंति ।"
- भगवती सूत्र श— २, उ. ५, श्रोपपातिक. सू. ४९
२. पाठान्तर – असं हज्जदेवा...'' असंहरणिज्जा जधा वातेंहिं मेरु न तु तधा वातपडागाणि सक्कंति विप्परिणावेतु देह वि, किंपुण माणुसेहि ? अर्थात् — जैसे प्रचण्ड वायु के द्वारा मेरु चलित नहीं किया जा सकता, वैसे ही वे (श्रमणोपासक) देवों के द्वारा भी विचलित नहीं किये जा सकते, मनुष्यों की तो बात ही क्या ? देखें भगवती ५। २ वृत्ति में - आपत्ति प्रादि में भी देव सहाय की अपेक्षा नहीं करने वाले ।
३. अणतिक्कमणिज्ज - जधा कस्सइ सुसीलस्स गुरु अणतिकमणिज्जे, एवं तेसि अरहंता साधुणो सीलाई वा अतिकमणिज्जाई णिस्संकिताई । जैसे किसी सुशील व्यक्ति का गुरु अपने सिद्धान्त का प्रतिक्रमण नहीं करता, वैसे ही उनके आर्हतोपासक श्रावक शील सिद्धान्त या निर्ग्रन्थ प्रवचन का अतिक्रमण नहीं करते । — सूत्र चू. ( मू. पा. टि. ) पृ. १८७, १८८
४. चियत्त तेउरघरदारप्पवेसी - चियत्तोत्ति लोकानां प्रीतिकर एव अन्तः वा गृहे वा प्रवेशो यस्य स तथा, अति धार्मिकतया सर्वत्रानाशंकनीयोऽसाविति भावः । अर्थात् - जिसका प्रवेश अन्तःपुर में, हर घर में, द्वार में लोगों को प्रोतिर था । अर्थात् यह सर्वत्र निःशंक प्रवेश कर सकता था । - प्रोपपातिक वृत्ति ४० / १००