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[ सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध
करते हैं । वे कल्याणकारी तथा सुगन्धित उत्तम वस्त्र पहनते हैं, तथा कल्याणमयी श्रेष्ठ माला और अंगलेपन धारण करते हैं । उनका शरीर प्रकाश से जगमगाता रहता है। वे लम्बी वनमालाओं को धारण करने वाले देव होते हैं। वे अपने दिव्य रूप, दिव्य वर्ण, दिव्यगन्ध, दिव्य स्पर्श, दिव्य संहनन, दिव्य संस्थान, तथा दिव्य ऋद्धि, द्यु ति, प्रभा, छाया (कान्ति), अर्चा (वृत्ति) तेज और लेश्या से दसों दिशाओं को आलोकित करते हए, चमकाते हए कल्याणमयी गति और स्थिति वाले तथा भविष्य में भद्रक होने वाले देवता बनते हैं।
यह (द्वितीय) स्थान आर्य है, यावत् यह समस्त दुःखों को नष्ट करने वाला मार्ग है। यह 'स्थान एकान्त (सर्वथा) सम्यक् और बहुत अच्छा (सुसाधु) है ।
इस प्रकार दूसरे स्थान-धर्मपक्ष का विचार प्रतिपादित किया गया है ।
विवेचन द्वितीय स्थान-धर्मपक्ष का अधिकारी, वृत्ति, प्रवृत्ति और सुपरिणाम-प्रस्तुत सूत्र (७१४) में उत्तमोत्तम आचार विचारनिष्ठ अनगार को धर्मपक्ष का अधिकारी बता कर उसकी वृत्ति, प्रवृत्ति आदि का विश्लेषण करते हुए, अन्त में उसकी सुन्दर फलश्रुति दी गई है।
विशिष्ट अनगार की वृत्ति को २१ पदार्थों से उपमित किया गया है। जैसे कि (१) कांस्यपात्र (२) शंख, (३) जीव, (४) गगनतल, (५) वायु, (8) शारदसलिल, (७) कमलपत्र, (८) कच्छप, (९) विहग, (१०) खङ्गी (गेंडे) का सींग, (११) भारण्डपक्षी, (१२) हाथी, (१३) वृषभ, (१४) सिंह, (१५) मन्दराचल, (१६) सागर, (१७) चन्द्रमा, (१८) सूर्य, (१६) स्वर्ण, (२०) पृथ्वी और (२१) प्रज्वलित अग्नि ।
प्रवृत्ति - अनगारों की प्रवृत्ति के रूप में प्रारम्भिक साधना से लेकर अन्तिम श्वासोच्छवास तक की तप, त्याग एवं संयम की साधना का विश्लेषण किया गया है । अप्रतिबद्धता, विविध तपश्चर्या; विविध अभिग्रहयुक्त भिक्षाचरी, आहार-विहार की उत्तमचर्या, शरीरप्रतिकर्म-विरक्ति और परीषहोपसर्गसहन, तथा अन्तिम समय में संल्लेखना-संथारा-पूर्वक आमरण अनशन; ये अनगार की प्रवृत्ति के मुख्य अंग है।
सुपरिणाम-धर्मपक्षीय अधिकारी की वृत्ति-प्रवृत्ति के दो सुपरिणाम शास्त्रकार ने अंकित किये हैं-(१) या तो वह केवलज्ञान-केवलदर्शन प्राप्त करके सिद्ध, बुद्ध, मुक्त एवं परिनिर्वृत्त होता है, (२) या फिर महाऋद्धि आदि से सम्पन्न देव होता है। तृतीय स्थान-मिश्रपक्ष : अधिकारी, वृत्ति, प्रवृत्ति और परिणाम
७१५-अहावरे तच्चस्स ठाणस्स मीसमस्स विभंगे एवमाहिज्जति-इह खलु पाईणं वा ४ संतेगतिया मणुस्सा भवंति, तं जहा-अप्पिच्छा अप्पारंभा अप्पपरिग्गहा धम्मिया धम्माणुया जाव धम्मेणं चेव वित्ति कप्पेमाणा विहरंति । सुसीला सुव्वया सुप्पडियाणंदा साहू, एगच्चातो पाणातिवायातो पडिविरता जावज्जीवाए एगच्चातो अप्पडिविरता, जाव जे यावऽण्णे तहप्पकारा सावज्जा प्रबोहिया कम्मंता परपाणपरिताक्णकस कज्जति ततो वि एगच्चातो पडिविरता एगच्चातो अप्पडिविरता।