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________________ क्रियास्थान : द्वितीय अध्ययन : सूत्र ७१४ ] (प्रारम्भरहित), अपरिग्रह (परिग्रहविरत) होते हैं, जो धार्मिक होते हैं, धर्मानुसार प्रवृत्ति करते हैं या धर्म की अनुज्ञा देते हैं, धर्म को ही अपना इष्ट मानते हैं, या धर्मप्रधान होते हैं, धर्म की ही चर्चा करते हैं, धर्ममयजीवी, धर्म को ही देखने वाले, धर्म में अनुरक्त, धर्मशील तथा धर्माचारपरायण होते हैं, यहाँ तक कि वे धर्म से ही अपनी जीविका उपार्जन करते हुए जीवनयापन करते हैं, जो सुशील, सुव्रती, शीघ्रसुप्रसन्न होने वाले (सदानन्दी) और उत्तम सुपुरुष होते हैं । जो समस्त प्राणातिपात से लेकर मिथ्यादर्शनशल्य तक जीवनभर विरत रहते हैं। जो स्नानादि से आजीवन निवृत्त रहते हैं, समस्त गाड़ी, घोड़ा, रथ आदि वाहनों से आजीवन विरत रहते हैं, क्रय-विक्रय पचन, पाचन सावद्यकर्म करने-कराने, प्रारम्भ-समारम्भ आदि से आजीवन निवृत्त रहते हैं, स्वर्ण-रजत धनधान्यादि सर्वपरिग्रह से आजीवन निवृत्त रहते हैं, यहाँ तक कि वे परपीड़ाकारी समस्त सावद्य अनार्य कर्मों से यावज्जीवन विरत रहते हैं। वे धार्मिक पुरुष अनगार (गृहत्यागी) भाग्यवान् होते हैं । वे ईर्यासमिति, भाषासमिति, एषणासमिति, आदान भाण्डमात्र निक्षेपणासमिति, उच्चार-प्रस्रवण-खेल-जल्ल-सिंघाण-परिष्ठापनिका समिति, इन पाँच समितियों से युक्त होते हैं, तथा मनःसमिति, वचनसमिति, कायसमिति, मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति से भी युक्त होते हैं। वे अपनी आत्मा को पापों से गुप्त (सुरक्षित) रखते हैं, अपनी इन्द्रियों को विषयभोगों से गुप्त (सुरक्षित) रखते हैं, और ब्रह्मचर्य का पालन नौ गुप्तियों यों सहित करते हैं। वे क्रोध, मान, माया और लोभ से रहित होते हैं । वं शान्ति तथा उत्कृष्ट (बाहर भीतर की) शान्ति से युक्त और उपशान्त होते हैं। वे समस्त संतापों से रहित, अाश्रवों से रहित, बाह्य-आभ्यन्तर-परिग्रह से रहित होते हैं, इन महात्माओं ने संसार के स्रोत (प्रवाह) का छेदन कर दिया है, ये कर्ममल के लेप से रहित होते हैं। वे जल के लेप से रहित कांसे की पात्री (बर्तन) की तरह कर्मजल के लेप से रहित होते हैं । जैसे शंख कालिमा (अंजन) से रहित होता है, वैसे ही ये महात्मा रागादि के कालुष्य से रहित होते हैं। जैसे जीव की गति कहीं नहीं रुकती, वैसे ही उन महात्माओं की गति कहीं नहीं रुकती । जैसे गगनतल बिना अवलम्बन के ही रहता है, वैसे ही ये महात्मा निरवलम्बी (किसी व्यक्ति या धन्धे का अवलम्बन लिये बिना) रहते हैं। जैसे वायू को कोई रोक नहीं सकता, वैसे ही, ये महात्मा भी द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव के प्रतिबन्ध से रहित (अप्रतिबद्ध) होते हैं । शरद्काल के स्वच्छ पानी की तरह उनका हृदय भी शुद्ध और स्वच्छ होता है। कमल का पत्ता जैसे जल के लेप से रहित होता है, वैसे ही ये भी कर्म मल के लेप से दूर रहते हैं, वे कछए की तरह अपनी इन्द्रियों को गुप्त-सुरक्षित रखते हैं। जैसे आकाश में पक्षी स्वतन्त्र (मुक्त) विहारी होता है, वैसे ही वे महात्मा समस्त ममत्त्वबन्धनों से रहित होकर आध्यात्मिक प्राकाश में स्वतन्त्रविहारी होते हैं। जैसे गेंडे का एक ही सींग होता है, वैसे ही वे महात्मा भाव से राग-द्वेष रहित अकेले ही होते हैं । वे भारण्डपक्षी की तरह अप्रमत्त (प्रमादरहित) होते हैं। जैसे हाथी वक्ष को उखाड़ने में समर्थ होता है, वैसे ही वे मूनि कषायों को निर्मल करने में शरवीर एवं दक्ष होते हैं । जैसे बैल भारवहन करने में समर्थ होता है, वैसे ही वे मुनि संयम भार को वहन करने में समर्थ होते हैं । जैसे सिंह दूसरे पशुओं से दबत्ता एवं हारता नहीं, वैसे ही वे महामुनि परीषहों और उपसर्गों से दबते और हारते नहीं । जैसे मन्दर पर्वत कम्पित नहीं होता वैसे ही वे महामुनि कष्टों, उपसर्गों और भयों से नहीं कांपते । वे समुद्र की तरह गम्भीर होते हैं, (हर्षशोकादि से व्याकुल नहीं होते ।) उनकी प्रकृति (या मनोवृत्ति) चन्द्रमा के समान सौम्य एवं शीतल होती है;
SR No.003439
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages282
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_sutrakritang
File Size20 MB
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