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________________ ८६] [ सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध को सिद्ध नहीं करते, अतः उनकी निवृत्ति निरर्थक है। मिथ्यात्त्व के तीव्र प्रभाव के कारण मिश्रपक्ष को अधर्म ही समझना चाहिए। अधिकारी--इसके अधिकारी कन्दमूलफलभोजी तापस आदि हैं। ये किसी पापस्थान से किञ्चित् निवृत्त होते हुए भी इनकी बुद्धि प्रबलमिथ्यात्व से ग्रस्त रहती है। इनमें से कई उपवासादि तीव्र कायक्लेश के कारण देवगति में जाते हैं, परन्तु वहाँ अधम आसुरी योनि में उत्पन्न होते हैं।' प्रथमस्थान : अधर्मपक्ष : वृत्ति, प्रवृत्ति एवं परिणाम __७१३–प्रहावरे पढमस्स ठाणस्स अधम्मपक्खस्स विभंगे एवमाहिज्जति–इह खलु पाईणं वा ४ संतेगतिया मणुस्सा भवंति महिच्छा महारंभा२ महापरिग्गहा अधम्मिया अधम्माणुया अधम्मिट्ठा अधम्मक्खाई अधम्मपायजीविणो अधम्मपलोइणो अधम्मलज्जणा अधम्मसीलसमुदायारा अधम्मेण चेव वित्ति कप्पेमाणा विहरंति । हण छिद भिद विगत्तगा लोहितपाणी चंडा रुद्दा खुद्दा साहसिया उक्कंचण-बंचण-माया-णियडि-कूड-कवड-सातिसंपप्रोगबहुला दुस्सीला दुव्वता दुप्पडियाणंदा असाधू सव्वातो पाणातिवायानो अप्पडिविरया जावज्जीवाए जाव सव्वातो परिग्गहातो अप्पडिविरया जावज्जीवाए, सव्वातो कोहातो जाव मिच्छादसणसल्लातो अप्पडिविरया, सव्वातो हाणुम्मद्दण-वण्णगविलेवण-सद्द-फरिस-रस-रूव-गंध-मल्लालंकारातो अप्पडिविरता जावज्जीवाए, सव्वातो सगडरह-जाण-जुग्ग-गिल्लि-थिल्लि-सीय-संदमाणिया-सयणा-ऽऽसण-जाण-वाहण-भोग-भोयणपवित्थरविहीतो अप्पडिविरया जावज्जीवाए, सव्वातो कय-विक्कय-मास-द्धमास-रूवगसंववहाराओ अप्पडिविरता जावज्जीवाए, सव्वातो हिरण्ण-सुवण्ण-धण-धण्ण-मणि-मोत्तिय-संख-सिल-प्पवालाप्रो अप्पडिविरया, सव्वातो कूडतुल-कूडमाणाम्रो अप्पडिविरया, सव्वातो आरंभसमारंभातो अप्पडिविरया सव्वातो करण-कारावणातो अप्पडिविरया जावज्जीवाए, सव्वातो पयण-पयावणातो अप्पडिविरया, सव्वातो कुट्टण-पिट्टण-तज्जण-तालण-वह-बंधपरिकिलेसातो अप्पडिविरता जावज्जीवाए, जे यावऽण्णे तहप्पगारा सावज्जा प्रबोहिया कम्मंता परपाणपरितावणकरा जे प्रणारिएहि कज्जति ततो वि अप्पडिविरता जावज्जीवाए। __ से जहाणामए केइ पुरिसे कलम-मसूर-तिल-मुग्ग-मास-णिप्फाव-कुलत्थ-प्रालिसंदग-पलिमंथगमादिएहि अयते कूरे मिच्छादंडं पउंजति, एवमेव तहप्पगारे पुरिसजाते तित्तिर-वट्टग-लावग-कवोतकविजल-मिय-महिस-वराह-गाह-गोह-कुम्म-सिरोसिवमादिएहि अयते कूरे मिच्छादंडं पउंजति । जा वि य से बाहिरिया परिसा भवति, तंजहा-दासे ति वा पेसे ति वा भयए ति वा भाइल्ले ति वा कम्मकरए ति वा भोगपुरिसे ति वा तेसि पि य णं अन्नयरंसि प्रहालहुसगंसि प्रवराहसि सयमेव १. सूत्रकृतांग शीलांकवृत्ति, पत्रांक ३२७ २. देखिये दशाश्र तस्कन्ध में उल्लिखित प्रक्रियावादी के वर्णन से तुलना-"महिच्छे महारम्भे....."पागमेस्साणं दुल्लभबोधिते यावि भवति, से तं अकिरियावादी भवति। -दशाश्र त. अ. ६ प्रथम उपासक प्रतिमावर्णन ३. तुलना-'अधम्मिया अधम्माणुया....."अधम्मेणा चेव वित्ति कप्पेमाणा विहरति ।' –औपपातिक सूत्र सं ४१
SR No.003439
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages282
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_sutrakritang
File Size20 MB
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