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प्रथम उद्देशक । गाथा १ से १ समय आने पर ये कोई भी उसे बचा नहीं सकेंगे और न ही शरण दे सकेंगे । वह निरुपाय होकर देखता रह जायगा ।२५
निष्कर्ष यह है कि विश्व के कोई भी सजीव-निर्जीव पदार्थ किसी अन्य की प्राणरक्षा में समर्थ नहीं है, और यह जीवन भी स्वल्प और नाशवान है, यह ज्ञपरिज्ञा से सम्यक जानकर प्रत्याख्यानपरिज्ञा से सचित्त-अचित्त परिग्रह प्राणिवधादि पाप तथा स्वजनादि के प्रति मोह-ममत्व आदि बन्धन-स्थानों का त्याग करने से जीव कर्म से पृथक् हो जाता । अथवा 'कम्मुणा उतिउट्टइ' इस वाक्य का यह भी अर्थ हो सकता है-उक्त दोनों तथ्यों को भली-भाँति जानकर जीव कर्म-संयमानुष्ठानरूप क्रिया करने से बन्धन से छूट जाता है।
एए गंथे विउक्कम्म–पाँचवीं गाथा तक स्वसमय (सिद्धान्त) का निरूपण किया गया । छठी गाथा से पर-समय का निरूपण किया गया है। इसका आशय यह है कि कई श्रमण एवं माहण (ब्राह्मण) इन अर्हत्कथित ग्रन्थों-शास्त्रों अथवा सिद्धान्तों को अस्वीकार करके परमार्थ को नहीं जानते हए मिथ्यात्व के उदय से मिथ्याग्रहवश विविध प्रकार से अपने-अपने ग्रन्थों-सिद्धान्तों में प्रबल रूप से बद्ध हैं ।२७
___ चूर्णिकार के अनुसार यहाँ शास्त्रकार का आशय यह प्रतीत होता है कि वे तथाकथित श्रमण-माहण परमार्थ को या विरति-अविरति दोष को नहीं जानकर विविध रूप से अपने-अपने ग्रन्थों या सिद्धान्तों से चिपके हुए हैं। इसी मिथ्यात्व के कारण वे न तो आत्मा को मानते हैं और न कर्मबन्ध और मोक्ष (मुक्ति) को। जब आत्मा का अस्तित्व ही नहीं मानते तो उसके साथ बंधने वाले कर्मों को, और कर्म
को मानने का प्रश्न ही नहीं उठता। कई माहण (दार्शनिक) आत्मा को मानते भी हैं तो वे सिर्फ पंचभौतिक या इस शरीर के साथ ही विनष्ट होने वाली मानते हैं, जिसमें न तो कर्मबन्ध
२५ (क) वित्तेण ताणं न लभे पमत्ते-उत्तरा० अ० ४ गा० ५
(ख) सूत्रकृतांग अमरसुखबोधिनी व्याख्या, पृ० ४६-५० (ग) धनानि भूमौ पशवश्चव गोष्ठे, नारी गृहद्वारि जनाः श्मशाने ।
देहश्चितायां परलोकमार्गे, धर्मानुगो गच्छति जीव एकः ॥" (घ) जेहिं वा सद्धि संवसति ते व णं एगया णियगा पुवि पोसेति, सो वा ते णियगे पच्छा पोसेज्जा । णालं ते तव ताणाए वा सरणाए वा, तुमंपि तेसिं णालं ताणाए वा सरणाए वा ।"
-आचारांग सूत्र ६६ (क) सूत्रकृतांग शीलांकवृत्ति पत्रांक १४ (ख) संखाए त्ति (संख्याय) ज्ञात्वा जाणणा संखाए, 'अणिच्चं जीवितं' ति तेण कम्माइं-कम्महेतु य रोडेज्जा।"
-संखाए का अर्थ है, जानकर, क्या जानकर ? जीवन अनित्य है, यह जानकर इस तरीके से कर्मों कोकर्म के कारणों को तोड़े।
-सूत्र० चूर्णि ___ अथवा चूर्णिकार सम्मत पाठान्तर भी है-'संघाति जीवितं चेव' जिसका अर्थ किया गया है'समस्तं धाति-संधाति मरणाय धावति'-समस्त प्राणी जीवन मृत्यु (विनाश) की ओर दौड़ रहा है। -
-सूत्र• चूणि मू० पा० टिप्पण पृ० २ २७ (क) सूत्रकृतांग शीलांकवृत्ति पत्रांक १४ ।
(ख) सूत्रकृतांग अमरसुखबोधिनी व्याख्या, पृ० ५२-५३